________________
तृतीय अध्ययन : चतुरंगीय
१७. खेत्तं वत्थु हिरण्णं च पसवो दास-पोरुसं।
चत्तारि काम-खन्धाणि तत्थ से उववजई॥ [१७] क्षेत्र (खेत, खुली जमीन), वास्तु (गृह, प्रासाद आदि), स्वर्ण, पशु और दास-पोष्य (या पौरुषेय), ये चार कामस्कन्ध जहाँ होते हैं, वहाँ वे उत्पन्न होते हैं।
१८. मित्तवं नायवं होइ उच्चागोए य वण्णवं।
अप्पायंके महापन्ने अभिजाए जसोबले॥ [१८] वे सन्मित्रों से युक्त, ज्ञातिमान् उच्चगोत्रीय, सुन्दर वर्ण वाले (सुरूप), नीरोग, महाप्राज्ञ, अभिजात—कुलीन, यशस्वी और बलवान् होते हैं।
१९. भोच्चा माणुस्सए भोए अप्पडिरूवे अहाउयं।
पुव्वं विसुद्ध-सद्धम्मे केवलं बोहि बुज्झिया॥ [१९] आयु-पर्यन्त (यथायुष्य) मनुष्यसम्बन्धी अनुपम (अप्रतिरूप) भोगों को भोग कर भी पूर्वकाल में विशुद्ध सद्धर्म के आराधक होने से वे निष्कलंक (केवलीप्रज्ञप्त धर्मप्राप्तिरूप) बोधि का अनुभव करते हैं।
२०. चउरंगं दुल्लहं नच्चा संजमं पडिवजिया।
___तवसा धुयकम्मंसे सिद्धे हवइ सासए॥ -त्ति बेमि। [२०] पूर्वोक्त चार अंगों को दुर्लभ जान कर वे साधक संयम-धर्म को अंगीकार करते हैं, तदनन्तर तपश्चर्या से कर्म के सब अंशों को क्षय कर वे शाश्वत सिद्ध (मुक्त) हो जाते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन–जक्खा- यक्ष शब्द का प्राचीन अर्थ यहाँ ऊर्ध्वकल्पवासी देव है। यज् धातु से निष्पन्न यक्ष शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ है-जिसकी इज्या-पूजा की जाए, वह यक्ष है। अथवा तथाविध ऋद्धि-समुदाय होने पर भी अन्त में क्षय को प्राप्त होता है, वह 'यक्ष' है।
महासुक्का-महाशुक्ल-अतिशय उज्वल प्रभा वाले सूर्य, चन्द्र आदि को कहा गया है। जक्खा शब्द के साथ 'उत्तर-उत्तरा' और 'महासुक्का' शब्द होने से ऊपर-ऊपर के देवों का सूचक यक्ष शब्द है तथा वे महाशुक्लरूप चन्द्र, सूर्य आदि के समान देदीप्यमान हैं। इससे उन देवों की शरीर-सम्पदा प्रतिपादित की गई है।
कामरूपविउव्विणो-चार अर्थ- (१) कामरूपविकुर्विणः-इच्छानुसार रूप-विकुर्वणा करने के स्वभाव वाले, (२) कामरूपविकरणा:-यथेष्ट रूपादि बनाने की शक्ति से युक्त, (३) आठ प्रकार के ऐश्वर्य से युक्त, (४) एक साथ अनेक आकार वाले बनाने की शक्ति से सम्पन्न । १. (क) इण्यन्ते पूज्यन्ते इति यक्षाः यान्ति वा तथाविधर्द्धिसमुदयेऽपि क्षयमिति यक्षाः। बृहवृत्ति, पत्र १८७
(ख) उत्तरज्झयणाणि टिप्पण (मुनि नथमलजी), अ० ३, पृ०२९ २. महाशुक्ला:-अतिशयोज्जवलतया चन्द्रादित्यादयः।
-बृहद्वृत्ति, पत्र १८७ ३. (क) कामतो रूपाणि विकुर्वितुं शीलं येषां त इमे कामरूपविकुर्विणः । (ख) अष्टप्रकारैश्वर्ययुक्ता इत्यर्थः ।
-उत्तरा. चूर्णि, पृ. १०१ (ग) कामरूपविकरणा:-यथेष्टरूपादिनिर्वर्तनशक्तिसमन्विताः। -सुखबोधा पत्र ७७ (घ) 'युगपदनेकाकाररूपविकरणशक्ति: कामरूपित्वमिति ।' - तत्त्वार्थराजवार्तिक ३/३६, पृ.२०३