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तृतीय अध्ययन : चतुरंगीय
से मिलता है। धर्मश्रवण से ही व्यक्ति तप, क्षमा और अहिंसा आदि को स्वीकार करता है ।
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तव, खंतिमहिंसयं: तीनों संग्राहकशब्द — तप — अनशन आदि १२ प्रकार के तप, संयम और इन्द्रियनिग्रह क्षान्ति — क्रोद्धविजय रूप क्षमा, कष्टसहिष्णुता तथा उपलक्षण से मान आदि कषायों के विजय का तथा अहिंसाभाव— उपलक्षण से मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन एवम् परिग्रह से विरमणरूपव्रत का संग्राहक है । २ धर्मश्रद्धा की दुर्लभता
९.
आहच्च सवणं लद्धुं सद्धा परमदुल्लहा । सोच्चा आउयं मग्गं बहवे परिभस्सई ॥
[९] कदाचित् धर्म का श्रवण भी प्राप्त हो जाए तो उस पर श्रद्धा होना परम दुर्लभ है, (क्योंकि) बहुत से लोग नैयायिक मार्ग ( न्यायोपपन्न सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयात्मक मोक्षपथ) को सुन कर भी उससे परिभ्रष्ट — (विचलित) हो जाते हैं ।
विवेचन — धर्मश्रद्धा का महत्त्व — धर्मविषयक रुचि संसारसागर पार करने के लिए नौका है, मिथ्यात्व-तिमिर को दूर करने के लिए दिनमणि जैसी है, स्वर्ग- मोक्षसुखप्रदायिनी चिन्तामणिसमा है, क्षपक श्रेणी पर आरूढ होने के लिए निसरणी है, कर्मरिपु को पराजित करने वाली और केवलज्ञान- केवलदर्शन की जननी है। ३ नेआउयं—दोरूप : दो अर्थ — (१) नैयायिक — न्यायोपपन्न — न्यायसंगत, (२) नैर्यातृकमोक्ष— दुःख के आत्यन्तिक क्षय की ओर या संसारसागर से पार ले जाने वाला।
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बहवे परिभस्सई— बहुत से परिभ्रष्ट हो जाते हैं । इसका भावार्थ यह है कि जमालि आदि की तरह बहुत-से सम्यक् श्रद्धा से विचलित हो जाते हैं।
दृष्टान्त — सुखबोधा टीका एवं आवश्यकनिर्युक्ति आदि में इस सम्बन्ध में मार्गभ्रष्ट सात निह्नवों का दृष्टान्त सविवरण प्रस्तुत किया गया है। वे सात निह्नव इस प्रकार हैं—
( १ ) जमालि - क्रियमाण (जो किया जा रहा है, वह अपेक्षा से) कृत (किया गया) कहा जा सकता है, भगवान् महावीर के इस सिद्धान्त को इसने अपलाप किया, इसे मिथ्या बताया और स्थविरों द्वारा युक्तिपूर्वक समझाने पर अपने मिथ्याग्रह पर अड़ा रहा। उसने पृथक् मत चलाया।
(२) तिष्यगुप्त — सप्तम आत्मप्रवाह पूर्व पढ़ते समय किसी नय की अपेक्षा से एक भी प्रदेश से हीन जीव को जीव नहीं कहा जा सकता है, इस कथन का आशय न समझ कर एकान्त आग्रह पकड़ लिया कि अन्तिम प्रदेश ही जीव है, प्रथम द्वितीयादि प्रदेश नहीं। आचार्य वसु ने उसे इस मिथ्याधारणा को छोड़ने के
१. (क) उत्तरा० प्रियदर्शिनी टीका, अ०३, पृ० ६३९
(ख) देखिये दशवैकालिकसूत्र, अ० ४ गा० १० में धर्मश्रवण माहात्म्य -
सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावर्ग ।
उभयं पि जाणइ सोच्चा, जं सेयं तं समायरे ॥
२. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र १८४ (ख) उत्तरा० प्रियदर्शिनी टीका, अ०३, पृ० ६३९
३. उत्तराध्ययन, प्रियदर्शनीव्याख्या, अ० ३, पृ० ६४१
४.
(क) बृहद्वृत्ति, पत्र १८५ 'नैयायिकः न्यायोपपन्न इत्यर्थः । ' (ख) उत्तराध्ययनचूर्णि नयनशीलो नैयायिकः । (ग) नयनशीलो नेयाइओ (नैर्यातृकः) मोक्षं नयतीत्यर्थः । (घ) बुद्धचर्या, पृ० ४६७, ४८९
- सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ० ४५७