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उत्तराध्ययन सूत्र
खत्तिओ, चंडाल, वोक्कसो- तीन शब्द संग्राहक हैं-(१)क्षप्रिय शब्द से बैश्य, ब्राह्मण आदि उत्तम जातियों का, (२) चाण्डाल शब्द से निषाद, श्वपच आदि नीच जातियों का और (३) वोक्कस शब्द से सूत, वैदेह, आयोगव आदि संकीर्ण (वर्णसंकर) जातियों का ग्रहण किया गया है। चूर्णि के अनुसार ब्राह्मण से शूद्रस्त्री में उत्पन्न निषाद अथवा ब्राह्मण से वैश्यस्त्री में उत्पन्न अम्बष्ठ और निषाद से अम्बष्ठस्त्री में उत्पन्न वोक्कस कहलाता है।
आवट्टजोणीसु-आवर्त का अर्थ परिवत है, आवर्तप्रधान योनियाँ आवतयोनियाँ हैं-चौरासी लाख प्रमाण जीवोत्पत्तिस्थान हैं, उनमें अर्थात्-योनिचक्रों में।२
कम्मकिब्बिसा—दो अर्थ-कर्मों से किल्विष– अधम, अथवा जिनके कर्म किल्विष-अशुभमलिन हों।
सव्वेद्वेसु व खत्तिया–व्याख्या—जिस प्रकार क्षत्रिय राजा आदि सर्वार्थों—सभी मानवीय कामभोगों में आसक्त हो जाते हैं, उसी प्रकार भवाभिनन्दी पुनः पुनः जन्म-मरण करते हुए उसी (संसार) में आसक्त हो जाते हैं।
विस्संभिया पया-विश्वभृतः प्रजा:-पृथक्-पृथक् एक-एक योनि में कदाचित् अपनी उत्पत्ति से प्राणी सारे जगत् को भर देते हैं, सारे जगत् में व्याप्त हो जाते हैं। कहा भी है
'णत्थि किर सो पएसो, लोए वालगाकोडिमेत्तो वि।
जम्मणमरणाबाहा, जत्थ जिएहिं न संपत्ता॥' 'लोक में बाल की अग्रकोटि-मात्र भी कोई ऐसा प्रदेश नहीं है, जहाँ जीवों ने जन्म-मरण न पाया हो।५ धर्म-श्रवण की दुर्लभता
८. माणुस्सं विग्गहं लधु सुई धम्मस्स दुल्लहा।
जं सोच्चा पडिवजन्ति तवं खन्तिमहिंसयं॥ [८] मनुष्य-देह पा लेने पर भी धर्म का श्रवण दुर्लभ है, जिसे श्रवण कर जीव तप, क्षान्ति (क्षमासहिष्णुता) और अहिंसा को अंगीकार करते हैं।
विवेचन धर्मश्रवण का महत्त्व-धर्मश्रवण मिथ्यात्त्वतिमिर का विनाशक, श्रद्धा रूप ज्योति का प्रकाशक, तत्त्व-अतत्त्व का विवेचक, कल्याण और पाप का भेदप्रदर्शक, अमृत-पान के समान एकान्त हितविधायक और हृदय को आनन्दित करने वाला है। ऐसे श्रुत-चारित्ररूप धर्म का श्रवण मनुष्य को प्रबल पुण्य १. (क) उत्तरा० चूर्णि०, पृ० ९६ (ख) इह च क्षत्रियग्रहणादुत्तमजातयः चाण्डालग्रहणान्नीचजातयो, बुक्कसग्रहणाच्च संकीर्णजातयः उपलक्षिताः।
-उत्तरा० बृहद्वृत्ति, पत्र १८२-१८३ २. आवर्तः परिवर्तः, तत्प्रधाना योनय:-चतुरशीतिलक्षप्रमाणानि जीवोत्पत्तिस्थानानि आवर्तयोनयस्तासु।।
-सुखबोधा, पत्र ६८ ३. कर्मणा-उक्तरूपेण किल्विषा:-अधमाः कर्मकिल्विषा: किल्विषानि क्लिष्टतया निकृष्टानि अशुभानुबंधीनि कर्माणि
येषां ते किल्विषकाणः। -बृहद्वृत्ति, पत्र १८३ ४. बृहवृत्ति, पत्र १८४ ५. बृहवृत्ति, पत्र १८२