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तृतीय अध्ययन : चतुरंगीय
वापस मिलना दुर्लभ बताया, वैसे ही एक बार हाथ से निकला हुआ मनुष्यभव पुनः मिलना दुर्लभ है। (६) स्वप्न- मूलदेव नामक क्षत्रिय को परदेश जाते हुए एक कार्पटिक मिला। मार्ग में कांचनपुर के बाहर तालाब पर दोनों सोए। पिछली रात को दोनों ने मुख में चन्द्रप्रवेश का स्वप्न देखा । मूलदेव ने कार्पटिक से स्वप्न को गोपनीय रखने को कहा, पर वह प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वप्न का वृतान्त कहता फिरा । किसी ने उससे कहा - " आज शनिवार है, इसलिए तुम्हें घृत-गुड़ सहित रोटी एवं तेल मिलेंगे।" यही हुआ। उधर मूलदेव ने एक स्वप्नपाठक ब्राह्मण से स्वप्नफल जानना चाहा, तो अपनी पुत्री के साथ विवाह करने की शर्त पर स्वप्नफल बताने को कहा । मूलदेव ने ब्राह्मणपुत्री के साथ विवाह करना स्वीकार किया। दामाद बन गया तो विप्र ने कहा - " आज से सातवें दिन आप इस नगर के राजा बनेंगे।" यही हुआ। मूलदेव को राजा बने देख उक्त कार्पटिक को अत्यन्त पश्चाताप हुआ। वह राज्यलक्ष्मी के हेतु चन्द्रपान के स्वप्न के लिए पुनः पुनः उसी स्थान पर सोने लगा, किन्तु अब उस कार्पटिक को चन्द्रपान का स्वप्न आना अति दुर्लभ था, वैसे ही एक बार मनुष्यजन्म चूकने पर पुन: मनुष्यजन्म की प्राप्ति अतिदुर्लभ है। (७) चक्र - मथुरा नरेश जितशत्रु ने अपनी पुत्री इन्दिरा के विवाह के लिए स्वयंवरमण्डप बनवाया, उसके निकट बड़ा खम्भा गड़वाया, जिसके ऊर्ध्वभाग में घूमने वाले ४ चक्र उलटे और चार सीधे लगवाए। उन चक्रों पर राधा नामक घूमती हुई पुतली रखवा दी। खंभे के ठीक नीचे तेल से भरा हुआ एक कड़ाह रखवाया। शर्त यह रखी कि जो व्यक्ति राधा के वामनेत्र को बाण से बींध देगा, उसे ही मेरी पुत्री वरण करेगी। स्वयंवर में समागत राजकुमारों ने बारी बारी से निशाना साधा, मगर किसी का एक चक्र से और किसी का दूसरे टकरा कर बाण गिर गया। अन्त में जयन्त राजकुमार ने बाण से पुतली के वामनेत्र की कनीनिका को बींध दिया। राजपुत्री इन्दिरा ने उसके गले में वरमाला डाल दी। जैसे राधावेध का साधना दुष्कर कार्य है, उसी प्रकार मनुष्य जन्म को हारे हुए प्रमादी को पुनः मनुष्यजन्मप्राप्ति दुर्लभ है। (८) कूर्म — कछुआ । शैवालाच्छादित सरोवर में एक कछुआ सपरिवार रहता था। एक बार किसी कारणवश शैवाल हट जाने से एक छिद्र हो गया। कछुए ने अपनी गर्दन बाहर निकाली तो स्वच्छ आकाश में शरत्कालीन पूर्ण चन्द्रविम्ब देखा । आश्चर्यपूर्वक आनन्दमग्न हो, वह इस अपूर्व वस्तु को दिखाने के लिए अपने परिवार को लेकर जब उस स्थल पर आया तो वह छिद्र हवा के झोंके से पुनः शैवाल से आच्छादित हो चुका था । अतः उस अभागे कछुए को जैसे पुनः चन्द्रदर्शन दुर्लभ हुआ. वैसे ही प्रमादी जीव को पुनः मनुष्यजन्म मिलना महादुर्लभ है। (९) युग — असंख्यात द्वीपों और समुद्रों के बाद असंख्यात योजन विस्तृत एवं सहस्र योजन गहरे अन्तिम समुद्र - स्वयंभूरमण में कोई देव पूर्वदिशा की ओर गाड़ी का एक जुआ डाल दे तथा पश्चिम दिशा की ओर उसकी कीलिका डाले। अब वह कीलिका वहाँ से बहती - बहती चली आए और बहते हुए इस जुए से मिल जाए तथा वह कीलिका उस जुए के छेद में प्रविष्ट हो जाए, यह अत्यन्त दुर्लभ है, इसी तरह मनुष्य भव से च्युत हुए प्रमादी को पुनः मनुष्यभव की प्राप्ति अति दुर्लभ है । (१०) परमाणु — कौतुकवश किसी देव ने माणिक्यनिर्मित स्तम्भ को वज्रप्रहार से तोड़ा. फिर उसे इतना पीसा कि उसका चूरा-चूरा हो गया। उस चूर्ण को एक नली में भरा और सुमेरु शिखर पर खड़े होकर फूंक मारी, जिससे वह चारों तरफ उड़ गया। वायु के प्रबल झौंके उस चूर्ण को प्रत्येक दिशा में दूर-दूर ले गये । उन सब परमाणुओं को एकत्रित करके पुनः उस माणिक्य स्तम्भ का निर्माण करना दुष्कर है, वैसे ही मनुष्यभव से च्युत जीव को पुनः मनुष्यभव मिलना दुर्लभ है।
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१. (क) उत्तराध्ययन ( प्रियदर्शिनी व्याख्या) पू. घासीलालजी म., अ. ३ टीका का सार, पृ. ५७४ से ६२५ तक (ख) जैन कथाएँ, भाग ६८
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