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________________ उत्तराध्ययन सूत्र आवर्तस्वरूप योनिचक्र में भ्रमण करते हुए भी संसार दशा से निर्वेद नहीं पाते ( –'जन्ममरण के भंवरजाल से मुक्त होने की इच्छा नहीं करते।') ६. कम्म-संगेहिं सम्मूढा दुक्खिया बहु-वेयणा। अमाणसासु जोणीसु विणिहम्मन्ति पाणिणो॥ [६] कर्मों के संग से सम्मूढ. दुःखित और अत्यन्त वेदना से युक्त जीव मनुष्येतर योनियों में पुनः पुनः विनिघात (वास) पाते हैं। ७. कम्माणं तु पहाणाए आणुपुव्वी कयाइ उ। जीवा सोहिमणुप्पत्ता आययन्ति मणुस्सयं॥ [७] कालचक्र से कदाचित् (मनुष्यगति-निरोधक क्लिष्ट) कर्मों का क्षय हो जाने से जीव तदनुरूप (आत्म-शुद्धि को प्राप्त करते हैं, तदनन्तर वे मनुष्यता प्राप्त करते हैं। विवेचन—मनुष्यत्वप्राप्ति में बाधक कारण- (१) एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक नाना गोत्र वाली जातियों में जन्म, (२) देवलोक, नरकभूमि. एवं आसुरकाय में जन्म, (३) तिर्यञ्चगति-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय. चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय में जन्म. (४) क्षत्रिय (राजा आदि) की तरह भोग साधनों की प्रचुरता के कारण संसारदशा से अविरक्ति, (५) मनुष्येतर योनियों में सम्मूढता एवं वेदना के कारण मनुष्यत्व प्राप्ति का अभाव, (६) मनुष्यगतिनिरोधक कर्मों का क्षय होने पर भी तदनुरूप आत्मशुद्धि का अभाव। मनुष्यत्व-दुर्लभता के विषय में दस दृष्टान्त—(१) चोल्लक अर्थात्-भोजन। ब्रह्मदत्त राजा ने चक्रवर्ती पद मिलने पर एक ब्राह्मण पर प्रसन्न होकर उसकी याचना एवं इच्छानुसार चक्री के षटखण्डपरिमित राज्य में प्रतिदिन एक घर से खीर का भोजन मिल जाने की मांग स्वीकार की। अत: सबसे प्रथम दिन उसने चक्रवती के यहाँ बनी हुई परम स्वादिष्ट खीर खाई। परन्तु जैसे उस ब्राह्मण को चक्रवर्ती के घर की खीर खाने का अवसर जिंदगी में दूसरी बार मिलना दुर्लभ है, वैसे ही इस जीव को मनुष्यजन्म पुनः मिलना दुर्लभ है। (२) पाशक-जुआ खेलने का पासा। चाणक्य की आराधना से प्रसन्न देव द्वारा प्रदत्त पासों के प्रभाव से उस का पराजित होना दुर्लभ बना, उसी प्रकार यह मनुष्यजन्म, दुर्लभ है। (३) धान्य-समस्त भारत क्षेत्र के सभी प्रकार के धान्यों (अनाजों) का गगनचुम्बी ढेर लगा कर उसमें एक प्रस्थ सरसों मिला देने पर उसके ढेर में से पुनः प्रस्थप्रमाण सरसों के दाने अलग-अलग करना बड़ा दुर्लभ है, वैसे ही जीव का मनुष्यभव से छूट कर चौरासी लक्ष योनि में मिल जाने पर पुनः मनुष्यजन्म मिलना अतिदुर्लभ है। (४) द्यूत- रत्नपुरनृप रिपुमर्दन ने अपने पुत्र सुमित्र को राजा के जीवित रहते राज्य प्राप्त करने की रीति बता दी कि १००८ खम्भे तथा प्रत्येक खम्भे के १००८ कोनों वाले सभाभवन के प्रत्येक कोने को जुए में (एक बार दाव से) जीत ले, तभी उस द्यूतक्रीड़ाविजयी राजकुमार को राज्य मिल सकता है। राजकुमार ने ऐसा ही किया, किन्तु द्यूत में प्रत्येक कोने को जीतना उसके लिए दुर्लभ हुआ, वैसे ही मनुष्यभव प्राप्त होना दुर्लभ है। (५) रत्न-धनद नामक कृपण वणिक्, किसी सम्बन्धी के आमन्त्रण पर अपने पुत्र वसुप्रिय को जमीन में गाड़े हुए रत्नों की रक्षा के लिए नियुक्त करके परदेश चला गया। वापिस आ कर देखा तो रत्न वहाँ नहीं मिले, क्योंकि उसके चारों पुत्रों ने रत्न निकाल कर बेच दिये थे और उनसे प्राप्त धनराशि से व्यापार करके कोटिध्वज बन गये थे। वृद्ध पिता के द्वारा वापिस रत्न नहीं मिलने पर घर से निकाल दिये जाने की धमकी देने पर चारों पुत्रों ने विक्रीत रत्नों का १. उत्तराध्ययन, मूल अ० ३, गा० २ से ७ तक
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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