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________________ ६० उत्तराध्ययन सूत्र लिए बहुत कहा। युक्तिपूर्वक समझाने पर भी उसने कदाग्रह न छोड़ा। किन्तु वे जब आमलकप्पा नगरी में आए तो उनकी मिथ्या प्ररूपणा सुनकर भगवान् महावीर के श्रावक मित्र श्री सेठ ने अपने घर भिक्षा के लिए प्रार्थना की। भिक्षा में उन्हें मोदकादि से में से एक तिलप्रमाण तथा घी आदि में से एक बिन्दुप्रमाण दिया । कारण पूछने पर कहा- आपका सिद्धान्त है कि अन्तिम एक प्रदेश ही पूर्ण जीव है, तथैव मोदकादि का एक अवयव भी पूर्ण मोदकादि है। आपकी दृष्टि में जिन वचन सत्य हो, तभी मैं तदनुसार आपको पर्याप्त भिक्षा दे सकता हूँ । तिष्यगुप्त ने अपनी भूल स्वीकार की, आलोचना करके शुद्धि करके पुनः सम्यक् बोधि प्राप्त की । (३) आषाढ़ाचार्य - शिष्य - हृदयशूल से मृत आषाढ़ आचार्य ने अपने शिष्यों को प्रथम देवलोक से आकर साधुवेष में अगाढयोग की शिक्षा दी। बाद में पुनः देवलोकगमन के समय शिष्यों को वस्तुस्थिति समझाई और वह देव अपने स्थान को चले गये । उनके शिष्यों ने संशयमिथ्यात्वग्रस्त होकर अव्यक्तभाव को स्वीकार किया। वे कहने लगे — हमने अज्ञानवश असयंत देव को संयत समझ कर वन्दना की, वैसे ही दूसरे लोग तथा हम भी एक दूसरे को नहीं जान सकते कि हम असंयत हैं या संयत ? अतः हमें समस्त वस्तुओं को अव्यक्त मानना चाहिए, जिससे मृषावाद भी न हो, असंयत को वन्दना भी न हो। राजगृहनृप बलभद्र श्रमणोपासक ने अव्यक्त निह्नवों का नगर में आगमन सुन कर उन्हें अपने सुभटों से बंधवाया और पिटवाकर अपने पास मंगवाया। उनके पूछने पर कि श्रमणोपासक होकर आपने हम श्रमणों पर ऐसा अत्याचार क्यों करवाया ? राजा ने कहा- आपके अव्यक्त मतानुसार हमें कैसे निश्चय हो कि आप श्रमण हैं या चोर? मैं श्रमणोपासक हूँ या अन्य? इस कथन को सुनकर वे सब प्रतिबुद्ध हो गए। अपनी मिथ्या धारणा के लिए मिथ्यादुष्कृत देकर पुन: स्थविरों की सेवा में चले गए। (४) अश्वमित्र - महागिरि आचार्य के शिष्य कौण्डिन्य अपने शिष्य अश्वमित्र मुनि को दशम विद्यानुप्रवाद पूर्व की नैपुणिक नामक वस्तु का अध्ययन करा रहे थे। उस समय इस आशय का एक सूत्रपाठ आया कि “वर्तमानक्षणवर्ती नैरयिक से लेकर वैमानिक तक चौवीस दण्डकों के जीव द्वितीयादि समयों में विनष्ट (व्युच्छिन्न) हो जाएँगे। इस पर से एकान्त क्षणक्षयवाद का आग्रह पकड़ लिया कि समस्त जीवादि पदार्थ प्रतिक्षण में विनष्ट हो रहे हैं, स्थिर नहीं हैं। " कौण्डिन्याचार्य ने उन्हें अनेकान्तदृष्टि से समझाया कि व्युच्छेद का अर्थ- वस्तु का सर्वथा नाश नहीं है, पर्यायपरिवर्तन है । अतः यही सिद्धान्त सत्य है कि - " समस्त पदार्थ द्रव्य की अपेक्षा से शाश्वत हैं, पर्याय की अपेक्षा से अशाश्वत ।" परन्तु अश्वमित्र ने अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा। राजगृहनगर के शुल्काध्यक्ष श्रावकों ने उन समुच्छेदवादियों को चाबुक आदि से खूब पीटा। जब उन्होंने कहा कि आप लोग श्रावक होकर हम साधुओं को क्यों पीट रहे हो ? तब उन्होंने कहा - " आपके क्षणविनश्वर सिद्धान्तानुसार न तो हम वे आपके श्रावक हैं जिन्होंने आपको पीटा है, क्योंकि वे तो नष्ट हो गए, हम नये उत्पन्न हुए हैं तथा पिटने वाले आप भी श्रमण नहीं रहे, क्योंकि आप तो अपने सिद्धान्तानुसार विनष्ट हो चुके हैं।" इस प्रकार शिक्षित करने पर उन्हें प्रतिबोध हुआ । वे सब पुनः सत्य सिद्धान्त को स्वीकार कर अपने संघ में आ गए। ( ५ ) गंगाचार्य — उल्लुकातीर नगर के द्वितीय तट पर धूल के परकोटे से परिवृत एक खेड़ा था। वहाँ महागिरि के शिष्य धनगुप्त आचार्य का चातुर्मास था । उनका शिष्य था— आचार्य गंग, जिसका चौमासा उल्लूकानदी के पूर्व तट पर बसे उल्लूकातीर नगर में था। एक बार शरत्काल में आचार्य गंग अपने गुरु को वन्दना करने जा रहे थे। मार्ग में नदी पड़ती थी । केशविहीन मस्तक होने से सूर्य की प्रखर किरणों के आतप से उनका मस्तक तप रहा था, साथ ही चरणों में शीतल जल का स्पर्श होने से शीतलता आ गई। मिथ्यात्वकर्मोदयवश
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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