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उत्तराध्ययनसूत्र
इस प्रकार जैसे सागरचन्द्र मुनि प्रज्ञापरीषह से पराजित हो गए थे, वैसे साधक को पराजित नहीं होना चाहिए। (२१) अज्ञानपरीषह
४२. 'निरट्ठगम्मि विरओ मेहुणाओ सुसंवुडो।
__ जो सक्खं नाभिजाणामि धम्मं कल्लाण पावगं॥' [४२] मैं व्यर्थ ही मैथुन आदि सांसारिक सुखों से विरत हुआ, मैंने इन्द्रिय और मन का संवरण (विषयों से निरोध) वृथा किया; क्योंकि धर्म कल्याणकारी है या पापकारी, यह मैं प्रत्यक्ष तो कुछ भी नहीं देख (-जान) पाता हूँ; (मुनि ऐसा न सोचे।)
४३. 'तवोवहाणमादाय पडिमं पडिवजओ।
एवं पि विहरओ मे छउमं न नियट्टई।' [४३] तप और उपधान को स्वीकार करता हूँ, प्रतिमाओं को भी धारण (एवं पालन) करता हूँ; इस प्रकार विशिष्ट साधनापथ पर विहरण करने पर भी मेरा छद्म अर्थात् ज्ञानावरणीयादि कर्म का आवरण दूर नहीं हो रहा है;-('ऐसा चिन्तन न करे।')
विवेचन–अज्ञानपरीषह- अज्ञान का अर्थ- ज्ञान का अभाव नहीं, किन्तु अल्पज्ञान या मिथ्याज्ञान है। यह परीषह अज्ञान के सद्भाव और अभाव —दोनों प्रकार से होता है। अज्ञान के रहते साधक में दैन्य, अश्रद्धा, भ्रान्ति आदि पैदा होती है। जैसे—मैं अब्रह्मचर्य से विरत हुआ, दुष्कर तपश्चरण किया, धर्मादि का आचरण किया, मेरा चित्त निरन्तर अप्रमत्त रहता है, यह मूर्ख है, पशुतुल्य है, कुछ नहीं जानता, इत्यादि तिरस्कारवचनों को भी मैं सहन करता हूँ, फिर भी मेरी छद्मस्थता नहीं मिटी, ज्ञानावरणीयादि कर्मों का क्षय होकर अभी तक मुझे अतिशयज्ञान प्राप्त नहीं हुआ—इस प्रकार का विचार करना, इस परीषह से हारना है और इस प्रकार का विचार न करना. इस परीषह पर विजय पाना है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशमवश दसरी ओर अज्ञान दूर हो जाने और अतिशय श्रुतज्ञान प्राप्त हो जाने पर बहुश्रुत होने के कारण अनेक साधु-साध्वियों को वाचना देते रहने के कारण मन में गर्व, ग्लानि, झुंझलाहट आना, इससे तो मूर्ख रहता तो अच्छा रहता, अतिशय श्रुतज्ञानी होने के कारण अब मुझे सभी साधुसाध्वी वाचना के लिए तंग करते हैं। न में सुख से सो सकता हूँ, न खा-पी सकता हूँ, न आराम कर सकता हूँ, इस प्रकार का विचार करने वाला साधक ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध कर लेता है और अज्ञानपरीषह से भी वह पराजित हो जाता है। अतः ऐसा विचार न करके मन में विषाद और गर्व को निकाल कर निर्जरार्थ अज्ञानपरीषह को समभावपूर्वक सहना अज्ञान-परीषह-विजय है। ____उवहाणं-उपधान—आगमों का विधिवत् अध्ययन करते समय परम्परागत-विधि के अनुसार प्रत्येक आगम के लिए निश्चित आयंबिल आदि तप करने का विधान। आचार-दिनकर में इसका स्पष्ट वर्णन है। (२२) दर्शनपरीषह (-अदर्शनपरीषह)
४४. 'नत्थि नूणं परे लोए इड्डी वावि तवस्सिणो।
अदुवा वंचिओ मि' त्ति इइ भिक्खू न चिन्तए॥ १. (क)सर्वाथसिद्धि ९.९/४२७ (ख)आवश्यक अ.४ (ग) उत्तराध्ययन, अ. २ वृत्ति २. (क) बृहदवृत्ति, पत्र १२८.३४७ (ख)आचारदिनकर, विभाग १, योगोदवहनविधि,पत्र ८६-११०