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________________ द्वितीय अध्ययन : परीषह-प्रविभक्ति ४९ दिये बिना, अज्ञात रहकर आहारादि की एषणा करता है, (२) अज्ञात — अपरिचित कुलों से आहारादि की एषणा करने वाला। (२०) प्रज्ञापरीषह ४०. ' से नूणं मए पुव्वं कम्माणाणफला कडा । जेणाहं नाभिजाणामि पुट्ठो केणइ कण्हुई | ' [४०] अवश्य ही मैंने पूर्वकाल में अज्ञानरूप फल देने वाले दुष्कर्म किये हैं, जिससे मैं किसी के द्वारा किसी विषय में पूछे जाने पर कुछ भी उत्तर देना नहीं जानता । ४१. " 'अह पच्छा उइज्जन्ति कम्माणाणफला कडा ।' एवमस्सामि उप्पाणं नच्चा कम्मविवागयं ॥ [४१] 'अज्ञानरूप फल देने वाले पूर्वकृत कर्म परिपक्व होने पर उदय में आते हैं ' विपाक को जान कर मुनि अपने को आश्वस्त करे । - इस प्रकार कर्म विवेचन — प्रज्ञापरीषह— प्रज्ञा विशिष्ट बुद्धि को कहते हैं। प्रज्ञापरीषह का प्रवचनसारोद्धार के अनुसार अर्थ — प्रज्ञावानों की प्रज्ञा को देखकर अपने में प्रज्ञा के अभाव में उद्वेग या विषाद का अनुभव न होना तथा प्रज्ञा का उत्कर्ष होने पर गर्व—मद न करना, किन्तु इसे कर्मविपाक मानकर अपनी आत्मा को आश्वस्त —— स्वस्थ रखना प्रज्ञापरीषहजय है । सर्वार्थसिद्धि के अनुसार 'मैं अंग, पूर्व और प्रकीर्णक शास्त्रों में विशारद हूँ तथा शब्दशास्त्र, न्यायशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र में निपुण हूँ। मेरे समक्ष दूसरे लोग सूर्य की प्रभा से अभिभूत हुए खद्योत के समान जरा भी शोभा नहीं देते, इस प्रकार के विज्ञानमद का अभाव हो जाना प्रज्ञापरीषहजय है । २ २. ३. उदाहरण – उज्जयिनी से कालकाचार्य अपने अतिप्रमादी शिष्यों को छोड़ कर अपने शिष्य सागरचन्द्र के पास स्वर्णभूमि नगरी पहुँचे । सागरचन्द्र ने उन्हें एकाकी जान कर उनकी ओर कोई लक्ष्य न दिया । कालकाचार्य ने भी अपना परिचय नहीं दिया। एक दिन सागरचन्द्र मुनि ने परिषद् में व्याख्यान दिया, सब ने उनके व्याख्यान की प्रशंसा की। कालकाचार्य से सागरचन्द्रमुनि ने पूछा- 'मेरा व्याख्यान कैसा था ? ' वह बोले— 'अच्छा था ।' फिर मुनि आचार्य के साथ तर्कवितर्क करने लगे, किन्तु वृद्ध आचार्य की युक्तियों के आगे वे टिक न सके। इधर कुछ समय के बाद कालकाचार्य के वे अतिप्रमादी शिष्य उन्हें ढूंढते ढूंढते स्वर्णभूमि पहुँचे। उन्होंने उपाश्रय में आ कर सागरचन्द्रमुनि से पूछा- 'क्या यहाँ कालकाचार्य आए हैं?' सागरचन्द्र मुनि ने कहा - ' एक वृद्ध के सिवाय और कोई यहाँ नहीं आया है।' अतिप्रमादी शिष्यों ने कालकाचार्य को पहचान लिया, वे चरणों में गिर कर उनसे क्षमायाचना करने लगे। यह देख सागरचन्द्र मुनि भी उनके चरणों में गिरे और क्षमायाचना करते हुए बोले— 'गुरुदेव, क्षमा करें, मैं आपको नहीं पहचान सका । अल्प ज्ञान से गर्वित होकर मैंने आपकी आशातना की।' आचार्य ने कहा—'वत्स ! श्रुतगर्व नहीं करना चाहिए। ३ १. (क) 'न ज्ञापयति — ' अहमेवंभूतपूर्वमासम्, न वा क्षपको बहुश्रुतो वेति' अज्ञातैषी' – उ०चू० पृ० ८१ (ख) अज्ञातमज्ञातेन एषते - भिक्षतेऽसौ अज्ञातैषी, निश्रादिरहित इत्यर्थः । - उ० चू० पृ० २३५ (ग) अज्ञातो — जाति श्रुतादिभिः एषति — उञ्छति अर्थात् — पिण्डादीत्यज्ञातैषीः । — बृहद्वृत्ति, पत्र १२५ (क) प्रवचनसारोद्धार द्वार ८६ (ख) धर्मसंग्रह अधि०३ (ग) तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि ९ / ९ / ४२७/४ (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १२७ (क) उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गा० १२०
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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