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द्वितीय अध्ययन : परीषह - प्रविभक्ति
[४४] " निश्चय ही परलोक नहीं है, तपस्वी की ऋद्धि भी नहीं है, हो न हो, मैं ( तो धर्म के नाम पर) ठगा गया हूँ," - भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे ।
४५. 'अभू जिणा अस्थि जिणा अदुवावि भविस्सई । मुसं ते एवमाहंसु' इइ भिक्खू न चिन्ता ॥
[ ४५] भूतकाल में जिन हुए थे, वर्तमान में जिन है, और भविष्य में जिन होंगे, ऐसा जो कहते हैं, वे असत्य कहते हैं, भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे ।
द्रष्टव्य
है
उपसंहार
विवेचन—दर्शनपरीषह
प्राय:
दिगम्बर परम्परा में इसके बदले अदर्शनपरीषह प्रसिद्ध है। दोनों का लक्षण मिलता-जुलता है। दर्शन का एक अर्थ यहाँ सम्यग्दर्शन है। एकान्त क्रियावादी आदि ३६३ वादियों के विचित्र मत सुन कर भी सम्यक् रूप से सहन करना — निश्चलचित्त से सम्यग्दर्शन को धारण करना, दर्शनपरीषहसहन है । अथवा दर्शनव्यामोह न होना दर्शनपरीषह सहन है । अथवा जिन, अथवा उनके द्वारा कथित जीव, अजीव, धर्म-अधर्म, परभव आदि परोक्ष होने के कारण मिथ्या हैं, ऐसा चिन्तन न करना दर्शनपरीषह सहन है ।१ इड्डी वावि तवस्सिणो- तपस्या आदि से तपस्वियों को प्राप्त होने वाली ऋद्धि शक्ति विशेष, जिसे 'योगजविभूति' कहा जाता है । पातंजलयोगदर्शन के विभूतिपाद में ऐसी योगजविभूतियों का वर्णन है, औपपातिक आदि जैन आगमों में ऐसी तपोजनित ऋद्धियों का उल्लेख मिलता है। ऋषि शब्द का यही अर्थ गृहीत किया गया है। बृहद्वृत्तिकार ने चरणरज से सर्वरोग-शान्ति, तृणाग्र से सर्वकाम-प्रदान, प्रस्वेद से रत्नमिश्रित स्वर्णवृष्टि, हजारों महाशिलाओं को गिराने की शक्ति आदि ऋद्धियों का उल्लेख किया है। २
दर्शनपरीषह के विषय में आर्य आषाढ़ के अदर्शन-निवारणार्थ स्वर्ग से समागत शिष्यों का उदाहरण
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४६. एए परीसहा सव्वे कासवेण पवेइया । भिक्खून विजा पुट्ठो केणह कण्हुई ॥
—त्ति बेमि ॥
[ ४६] काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर ने इन सभी परीषहों का प्ररूपण किया है। इन्हें जानकर कहीं भी इनमें से किसी भी परीषह से स्पृष्ट- आक्रान्त होने पर भिक्षु इनसे पराजित न हो, ऐसा मैं कहता हूँ ।
॥ द्वितीय अध्ययन : परीषह प्रविभक्ति सम्पूर्ण ॥
१. (क) उत्तराध्ययन, अ.२ (ख) भगवती. श. ८ उ. ८
(ग) धर्मसंग्रह अ. पत्र, ३
२.
(क) ऋद्धिर्वा तपोमहात्म्यरूपा ..... सा च आमर्षौषध्यादिः । —बृहद्वृत्ति, पत्र १३१ (ख) औपपातिक सूत्र १५
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