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उत्तराध्ययनसूत्र
खानपान के कारण शरीर में रोगादि उत्पन्न होने पर उद्विग्न नहीं होता, अशुचि पदार्थों के आश्रय, अनित्य व परित्राणरहित इस शरीर के प्रति निःस्पृह होने के कारण रोग की चिकित्सा कराना पसंद नहीं करता है। वह अदीन मन से रोग की पीड़ा को सहन करता है, सैकड़ों व्याधियाँ होने पर भी संयम को छोड़कर उनके आधीन नहीं होता। उसी को रोगपरीषह - विजयी समझना चाहिए ।
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जं न कुज्जा न कारवे : शंका समाधान – मुनि भयंकर रोग उत्पन्न होने पर चिकित्सा न करे, न करा; यह विधान क्या सभी साधुवर्ग के लिए है? इस शंका का समाधान शान्त्याचार्य इस प्रकार करते हैं, यह सूत्र (गाथा) जिनकल्पी, प्रतिमाधारी की अपेक्षा से है, स्थविरकल्पी की अपेक्षा से इसका आशय यह है कि साधु सावद्य चिकित्सा न करे, न कराए। चूर्णि में किसी विशिष्ट साधक का उल्लेख न करके बताया है कि श्रामण्य का पालन नीरोगावस्था में किया जा सकता है। किन्तु यह बात महत्त्वपूर्ण होते हुए भी सभी साधुओं की शारीरिक-मानसिक स्थिति, योग्यता एवं सहनशक्ति एक सी नहीं होती। इसलिए रोग का निरवद्य प्रतीकार करना संयमयात्रा के लिए आवश्यक हो जाता है। चिकित्सा कराने पर भी रोगजनित वेदना तो होती ही है, उस परीषह को समभाव से सहना चाहिए । २
( १७ ) तृणस्पर्शपरीषह
३४. अचेलगस्स लूहस्स संजयस्स तवस्सिणो । तसु सयमाणस्स हुज्जा गाय - विराहणा ॥
[३४] अचेलक एवं रूक्ष शरीर वाले संयत तपस्वी साधु को घास पर सोने से शरीर में विराधना ( चुभन - पीड़ा ) होती है।
३५.
आयवस्स निवाएणं अउला हवइ वेयणा । एवं नच्चा न सेवन्ति तन्तुजं तण-तज्जिया ॥
[३५] तेज धूप पड़ने से ( घास पर सोते समय ) अतुल (तीव्र) वेदना होती है, यह जानकर तृणस्पर्श से पीड़ित मुनि वस्त्र (तन्तुजन्य पट) का सेवन नहीं करते ।
विवेचन – तृणस्पर्शपरीषह - तृण शब्द से सूखा घास, दर्भ, तृण, कंकड़, कांटे आदि जितने भी चुभने वाले पदार्थ हैं, उन सब का ग्रहण करना चाहिए। ऐसे तृणादि पर सोने-बैठने, लेटने आदि से चुभने, शरीर छिल जाने से या कठोर स्पर्श होने से जो पीड़ा, व्यथा होती है, उसे समभावपूर्वक सहन करना तृणस्पर्शपरीषहजय है।३
अचेलगस्स — अचेलक (निर्वस्त्र) जिनकल्पिक साधुओं की दृष्टि से यह कथन है। किन्तु स्थविरकल्पी सचेलक के लिए भी यह परीषह तब होता है, जब दर्भ, घास आदि के संस्तारक पर जो वस्त्र बिछाया गया हो, वह चोरों द्वारा चुरा लिया गया हो, अथवा वह वस्त्र अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण हो, ऐसी स्थिति में, दर्भ, घास आदि के तीक्ष्ण स्पर्श को समभाव से सहन किया जाता है। घास आदि से शरीर छिल जाने पर सूर्य की प्रखर
१. (क) सर्वार्थसिद्धि ९/९/४२५ / ९
२. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र १२०
३.
(क) सर्वार्थसिद्धि ९/९/४२६ / १
(ख) धर्मसंग्रह, अधिकार ३
(ख) उत्तरा. चूर्णि, पृ. ७७
(ख) आवश्यक मलय. वृत्ति, अ. १, खण्ड २