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द्वितीय अध्ययन : परीषह प्रविभक्ति
किरणों या नमक आदि क्षार पदार्थ पड़ने पर हुई असह्य वेदना को सहना भी इसी परीषह के अन्तर्गत है।
उदाहरण-श्रावस्ती के जितशत्रु राजा का पुत्र भद्र कामभोगों से विरक्त होकर स्थविरों के पास प्रव्रजित हुआ। कालान्तर में एकलविहारप्रतिमा अंगीकार करके वैराज्य देश में गया। वहाँ गुप्तचर समझ कर उसे गिरफ्तार कर लिया गया । उसे मारपीट कर घायल कर दिया और खून रिसते हुए घाव पर क्षार छिड़क कर ऊपर से दर्भ लपेट दिया। अब तो पीड़ा का पार न रहा। किन्तु भद्र मुनि ने समभावपूर्वक उस परीषह को सहन किया। (१८) जल्लपरीषह ( मलपरीषह)
३६. किलिन्नगाए मेहावी पंकेण व रएण वा।
____धिंसु वा परितावेण सायं नो परिदेवए॥ (३६) ग्रीष्मऋतु में (पसीने के साथ धूल मिल जाने से शरीर पर जमे हुए) मैल से, कीचड़ से, रज से अथवा प्रखर ताप से शरीर के क्लिन (लिप्त या गीले) हो जाने पर मेधावी श्रमण साता (सुख) के लिए परिदेवन (-विलाप) न करे।
३७. वेएज निजरा-पेही आरियं धम्मऽणुत्तरं।
जाव सरीरभेउ त्ति जल्लं काएण धारए॥ (३७) निर्जरापेक्षी मुनि अनुत्तर (श्रेष्ठ) आर्यधर्म (वीतरागोक्त श्रुत-चारित्रधर्म) को पा कर शरीरविनाश-पर्यन्त जल्ल (प्रस्वेदजन्य मैल) शरीर पर धारण किये रहे। उसे (तजनित परीषह को) समभाव से वेदन करे।
विवेचन-जल्लपरीषह : स्वरूप और सहन- इसे मल्लपरीषह भी कहते हैं। जल्ल का अर्थ है-पसीने से होने वाला मैल । ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की तीक्ष्ण किरणों के ताप से उत्पन्न हुए पसीने के साथ धूल चिपक जाने पर मैल जमा होने से शरीर से दुर्गन्ध निकलती है, उसे मिटाने के लिए ठंडे जल से स्नान करने की अभिलाषा न करना, क्योंकि सचित्त ठंडे पानी से अप्कायिक जीवों की विराधना होती है तथा शरीर पर मैल जमा होने के कारण दाद, खाज आदि चर्मरोग होने पर भी तैलादि मर्दन करने, चन्दनादि लेपन करने आदि की भी अपेक्षा न रखना तथा उक्त कष्ट से उद्विग्न न होकर समभाव पूर्वक सहना और सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्ररूपी विमल जल से प्रक्षालन करके कर्ममलपंक को दूर करने के लिये निरन्तर उद्यत रहना जल्लपरीषहजय कहलाता है। (१९) सत्कार-पुरस्कारपरीषह
३८. अभिवायणमब्भुट्ठाणं सामी कुज्जा निमन्तणं।
जे ताइं पडिसेवन्ति न तेसिं पीहए मुणी॥ १. (क) अचेलकत्वादीनि तु तपस्विविशेषणानि । मा भूत सचलेकस्य तृणस्पर्शासम्भवेन अरूक्षस्य। -बृहवृत्ति, पत्र १२१
(ख) पंचसंग्रह, द्वार २ २. उत्तराध्ययननियुक्ति, अ०२ ३. (क) धर्मसंग्रह, अधि. ३ (ख) पंचसंग्रह, द्वार ४ (ग) सर्वार्थसिद्धि- ९/९/४२६/४
(घ) चारित्रसार १२५/६