SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय अध्ययन : परीषह-प्रविभक्ति चाल में लड़खड़ाना, मुख पर दीनता, शरीर में पसीना आना, चेहरे का रंग फीका पड़ जाना आदि जो चिह्न मरणावस्था में पाए जाते हैं, वे सब चिह्न याचक के होते हैं। - इसीलिए याचना करना मृत्युतुल्य होने से परीषह बताया गया है। १ (१५) अलाभपरीषह ३०. परेसु घासमेसेज्जा भोयणे परिणिट्ठिए। ___ लद्धे पिण्डे अलद्धे वा नाणुतप्पेज संजए॥ [३०] (गृहस्थों के घरों में ) भोजन परिनिष्ठित हो (पक) जाने पर साधु गृहस्थों से ग्रास (भोजन) की एषणा करे। पिण्ड (आहार) थोड़ा मिलने पर या कभी न मिलने पर संयमी मुनि इसके लिए अनुताप (खेद) न करे। ३१. 'अजेवाहं न लब्भामि अवि लाभो सुए सिया।' जो एवं पडिसंचिक्खे अलाभो तं न तज्जए॥ [३१] 'आज मुझे कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ, सम्भव है कल प्राप्त हो जाय', जो साधक इस प्रकार परिसमीक्षा करता (सोचता) है, उसे अलाभपरीषह (कष्ट) पीड़ित नहीं करता। विवेचन–अलाभपरीषह-विजय-नानादेशविहारी भिक्षु को उच्च-नीच-मध्यम कुलों में भिक्षा न मिलने पर चित्त में संक्लेश न होना, दाताविशेष की परीक्षा का औत्सुक्य न होना, न देने या न मिलने पर ग्राम, नगर, दाता आदि की निन्दा-भर्त्सना नहीं करना, अलाभ में मुझे परम तप है, इस प्रकार संतोषवृत्ति, लाभअलाभ दोनों में समता रखना, अलाभ की पीड़ा को सहना, अलाभ परीषहविजय है। परेसु-गृहस्थों से। (१६) रोगपरीषह ३२. नच्चा उप्पइयं दुक्खं वेयणाए दुहट्टिए। ____ अदीणो थावए पन्नं पुट्ठो तत्थऽहियासए॥ [३२] रोगादिजनित दुःख (कर्मोदय से) उत्पन्न हुआ जानकर तथा (रोग की) वेदना से पीड़ित होने पर दीन न बने। रोग से विचलित होती हुई प्रज्ञा को समभाव में स्थापित (स्थिर) करे। संयमी जीवन में रोगजनित कष्ट आ पड़ने से समभाव से सहन करे। ३३. तेगिच्छं नाभिनन्देज्जा संचिक्खऽत्तगवेसए। एवं खु तस्स सामण्णं जं न कुज्जा, न कारवे॥ [३३] आत्म-गवेषक मुनि चिकित्सा का अभिनन्दन (समर्थन या प्रशंसा) न करे। (रोग हो जाने पर) समाधिपूर्वक रहे। उसका श्रामण्य यही है कि रोग उत्पन्न होने पर भी चिकित्सा न करे, न कराए। विवेचन रोगपरीषह : स्वरूप-देह से आत्मा को पृथक् समझने वाला भेदविज्ञानी साधक विरुद्ध १. बृहद्वृत्ति, पत्र १११
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy