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________________ ४४ उत्तराध्ययनसूत्र समणं-'समण' के तीन रूप : तीन अर्थ -(१) श्रमण (२) समन-सममन और (३) शमन । श्रमण का अर्थ है -साधना के लिए स्वयं आध्यात्मिक श्रम एवं तप करने वाला, समन का अर्थ है-जिसका मन रागद्वेषादि प्रसंगों में सम है, जो समत्व में स्थिर है, शमन का अर्थ है -जिसने कषायों एवं अकुशल वृत्तियों का शमन कर दिया है, जो उपशम, क्षमाभाव एवं शांति का आराधक है। । वध-प्रसंग पर चिन्तन–यदि कोई दुष्ट व्यक्ति साधु को गाली दे तो सोचे कि गाली ही देता है, पीटता तो नहीं, पीटने पर सोचे-पीटता ही तो है, मारता तो नहीं, मारने पर सोचे-यह शरीर को ही मारता है, मेरी आत्मा या आत्मधर्म का हनन तो यह कर नहीं सकता, क्योंकि आत्मा और आत्मधर्म दोनों शाश्वत, अमर, अमूर्त हैं। धीर पुरुष तो लाभ ही मानता है। १४. याचनापरीषह २८. दुक्करं खलु भो निच्चं अणगारस्स भिक्खुणो। सव्वं से जाइयं होइ नत्थि किंचि अजाइयं॥ [२८] अहो! अनगार भिक्षु की यह चर्या वास्तव में दुष्कर है कि उसे (वस्त्र, पात्र, आहार आदि) सब कुछ याचना से प्राप्त होता है। उसके पास अयाचित (–बिना मांगा हुआ) कुछ भी नहीं होता। २९. गोयरग्गपविट्ठस्स पाणी नो सुप्पसारए। 'सेओ अगार-वासु'त्ति इह भिक्खू न चिन्तए॥ [२९] गोचरी के लिए (गृहस्थ के घर में) प्रविष्ट भिक्षु के लिए गृहस्थ वर्ग के सामने हाथ पसारना आसान नहीं है। अत: भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे कि (इससे तो) गृहवास ही श्रेयस्कर (अच्छा) है। विवेचन-याचनापरीषह-विजय—भिक्षु को वस्त्र, पात्र, आहार-पानी, उपाश्रय आदि प्राप्त करने के लिए दूसरों (गृहस्थों) से याचना करनी पड़ती है, किन्तु उस याचना में किसी प्रकार की दीनता, हीनता, चाटुकारिता, मुख की विवर्णता या जाति-कुलादि बताकर प्रगल्भता नहीं होनी चाहिए। शालीनतापूर्वक स्वधर्मपालनार्थ या संयमयात्रा निर्वाहार्थ याचना करना साधु का धर्म है। इस प्रकार विधिपूर्वक जो याचना करते हुए घबराता नहीं, वह याचनापरिषह पर विजयी होता है। पाणी नो सुप्पसारए : व्याख्या-याचना करने वाले को दूसरों के सामने हाथ पसारना 'मुझे दो', इस प्रकार कहना सरल नहीं है । चूर्णि में इसका कारण बताया है-कुबेर के समान धनवान व्यक्ति भी जब तक 'मुझे दो' यह वाक्य नहीं कहता, तब तक तो कोई कोई तिरस्कार नहीं करता, किन्तु 'मुझे दो' ऐसा कहते ही वह तिरस्कारभाजन बन जाता है। नीतिकार भी कहते हैं 'गतिभ्रंशो मुखे दैन्यं, गात्रस्वेदो विवर्णता। मरणे यानि चिह्नानि, तानि चिह्नानि याचके॥' १. श्रमणसूत्र : श्रमण शब्द पर निर्वचन (उत्त. अमरमुनि) पृ. ५४-५५ –उत्त. चूर्णि पृ. ७२ २. अक्कोस-हणण-मारण-धम्मब्भंसाण बालसुलभाणं। लाभं मन्नति धीरो, जहुत्तराणं अभावंमि ॥ ३. (क) पंचसंग्रह, द्वार ४ (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १११ (ग) सर्वार्थसिद्धि ९/९/८२५
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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