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________________ ४३ द्वितीय अध्ययन : परीषह-प्रविभक्ति जो रोष से कांप उठता है, अग्नि की भांति धधकने लगता है, रोषाग्नि प्रदीप्त कर देता है, जो आक्रोश के प्रति आक्रोश और घात के प्रति प्रत्याघात करता है, वही प्रतिसंज्वलन है। [२] (बदला लेने के लिए) गाली के बदले में गाली देना, अर्थ बृहद्वृत्तिकार ने किया है।' गामकंटगा -ग्रामकण्टक : दो व्याख्या – (१) बृहवृत्ति के अनुसार इन्द्रियग्राम (इन्द्रियसमूह) अर्थ में तथा कानों में कांटों की भांति चुभने वाली प्रतिकूलशब्दात्मक भाषा। (२) मूलाराधना के अनुसार ग्राम्य (गंवार) लोगों के वचन रूपी कांटे।२ (१३) वधपरीषह २६. हओ न संजले भिक्खू मणं पि न पओसए। तितिक्खं परमं नच्चा भिक्खु-धम्मं विचिंतए॥ ___ [२६] मारे-पीटे जाने पर भी भिक्षु (बदले में) क्रोध न करे, मन को भी (दुर्भावना से) प्रदूषित न करे, तितिक्षा (क्षमा—सहिष्णुता) को (साधना का) परम अंग जान कर श्रमणधर्म का चिन्तन करे। २६. समणं संजयं दन्तं हणेजा कोई कत्थई। 'नस्थि जीवस्स नासु'त्ति एवं पेहेज संजए॥ [२६] संयत और दान्त श्रमण को कोई कहीं मारे—(वध करे) तो उसे ऐसा अनुप्रेक्षण (चिन्तन) करना चाहिए कि 'आत्मा का नाश नहीं होता।' विवेचन-वध के दो अर्थ – (१) डंडा, चाबुक और बेंत आदि से प्राणियों को मारना-पीटना. (२) आयु, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास आदि प्राणों का वियोग कर देना। वधपरीषहजय का लक्षण -तीक्ष्ण, तलवार, मूसल, मुद्गर, चाबुक, डंडा आदि अस्त्रों द्वारा ताड़न और पीड़न आदि से जिस साधक का शरीर तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है, तथापि मारने वालों पर लेशमात्र भी द्वेषादि मनोविकार नहीं आता, यह मेरे पूर्वकृत दुष्कर्मों का फल है; ये बेचारे क्या कर सकते हैं? इस शरीर का जल के बुलबुले के समान नष्ट होने का स्वभाव है, ये तो दुःख के कारण शरीर को ही बाधा पहुंचाते हैं, मेरे सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र को कोई नष्ट नहीं कर सकता; इस प्रकार जो साधक विचार करता है, वह वसूले से छीलने और चन्दन से लेप करने, दोनों परिस्थितियों में समदर्शी रहता है, ऐसा साधक ही वधपरीषह पर विजय पाता है। भिक्खुधम्म-भिक्षुधर्म से यहाँ क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दशविध श्रमणधर्म से अभिप्राय है।' १. (क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. ७२ (ख) उत्तराज्झयणाणि (मुनि नथमल), अ. २, पृ. २० २. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ११० (ख) ग्रसते इति ग्रामः इन्द्रियग्रामः, तस्येन्द्रियग्रामस्य कंटगा जहा पंथे गच्छंताणं कंटगा विघ्नाय, तहा सद्दादयोऽवि इन्द्रियग्रामकंटया मोक्षिणां विघ्नाय।-उत्तरा. चूर्णि, पृ ७० (ग) मूलाराधना, आश्वास ४, श्लोक ३०१ ३. (क) सर्वार्थसिद्धि ७/ २५/३६६/२ (ख) वही, ६/११/३२९/२ ४. वही, ९/९/४२४/९, चारित्रसार १२९/३ ५. स्थानांग में देखें - दशविध श्रमणधर्म १०/७१२
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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