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________________ उत्तराध्ययनसूत्र पापकर्म का विपाक (फल) है इस तरह जो चिन्तन करता है, उन शब्दों को सुन कर जो तपश्चरण की भावना में तत्पर होता है और जो कषायविष को अपने हृदय में लेशमात्र भी अवकाश नहीं देता, उसके आक्रोशपरीषहसहन अवश्य होता है। अक्कोसेज० ..... की व्याख्या -आक्रोश शब्द तिरस्कार, अनिष्टवचन, क्रोधावेश में आकर गाली देना इत्यादि अर्थों में प्रयुक्त होता है। धर्मसंग्रह' में बताया है साधक आक्रुष्ट होने पर भी अपनी क्षमाश्रमणता जानता हुआ प्रत्याक्रोश न करे, वह अपने प्रति आक्रोश करने वाले की उपकारिता का विचार करे। 'प्रवचनसारोद्धार' में बताया गया है-आक्रुष्ट बुद्धिमान् को तत्त्वार्थ के चिन्तन में अपनी बुद्धि लगानी चाहिए, यदि आक्रोशकतो का आक्रोश सच्चा है तो उसके प्रति क्रोध करने की क्या आवश्यकता है? बल्कि यह सोचना चाहिए कि यह परम उपकारी मझे हितशिक्षा देता है. भविष्य में ऐसा नहीं करूंगा। यदि आक्रोश असत्य है तो रोष करना ही नहीं चाहिए। "किसी साधक को जाते देख कोई व्यक्ति उस पर व्यंग्य कसता है कि यह चाण्डाल है या ब्राह्मण अथवा शूद्र है या तापस? अथवा कोई तत्त्वविशारद योगीश्वर है?" इस प्रकार का वार्तालाप अनेक प्रकार के विकल्प करने वाले वाचालों के मुख से सुनकर महायोगी हृदय में रुष्ट और तुष्ट न होकर अपने मार्ग से चला जाता है। गाली सुनकर वह सोचे–जितनी इच्छा हो गाली दो, क्योंकि आप गालीमान् हैं, जगत् में विदित है कि जिसके पास जो चीज होती है, वही देता है। हमारे पास गालियाँ नहीं हैं, इसलिए देने में असमर्थ हैं । इस प्रकार आक्रोश वचनों का उत्तर न देकर धीर एवं क्षमाशील अर्जुनमुनि की तरह जो उन्हें समभाव से सहता है, वही अत्यन्त लाभ में रहता है।२ ____पडिसंजले-प्रतिसंज्वलन : तीन अर्थ-चूर्णिकार ने संज्वलन के दो अर्थ प्रस्तुत किये हैं - (१) रोषोद्गम और (२) मानोदय । प्रतिसंज्वलन का लक्षण उन्हीं के शब्दों में - "कंपति रोषादग्निः संधक्षितवच्च दीप्यतेऽनेन। तं प्रत्याक्रोशत्याहन्ति च हन्येत येन स मतः॥' १. (क) तत्त्वार्थ. सर्वार्थसिद्धि ९/९/४२४ (ख) पंचाशक, १३ विवरण २. (क) आक्रोशनमाक्रोशोऽसभ्यभाषात्मकः, -उत्त. अ.२ वृत्ति, 'आक्रोशोऽनिष्टवचनं'-आवश्यक. ४ अ. _ 'आक्रोशेत्तिरस्कुर्यात्'-. वृ., पत्र १४० (ख) 'आक्रुष्टो हि नाक्रोशेत्, क्षमाश्रमणतां विदन्। प्रत्युताक्रुष्टरि यतिश्चिन्तयेदुपकारिताम्॥ -धर्मसंग्रह, अधि.३ आक्रुष्टेन मतिमता तत्वार्थविचारणे मतिः कार्या। यदि सत्यं क : कोप:? यद्यनृतं 'किमिह कोपेन?'- प्रवचन, द्वार ८६ (घ) चाण्डालः किमयं द्विजातिरथवा शूद्रोऽथवा तापसः। किं वा तत्त्वनिदेशपेशलमतिर्योगीश्वरः कोऽपि वा॥ इत्यस्वल्पविकल्पजल्पमुखरैः संभाष्यमाणो जनैर्। नो रुष्टो, नहि चैव हृष्टहृदयो योगीश्वरो गच्छति ॥ (ङ) ददतु ददतु गाली गालिमन्तो भवन्तः, वयमिह तदभावात् गालिदानेऽप्यशक्ताः । जगति विदितमेतत् दीयते विद्यमानं, नहि शशकविषाणं कोऽपि कस्मै ददाति ॥ (ग)
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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