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द्वितीय अध्ययन : परीषह-प्रविभक्ति
नाइवेलं विहन्नेज्जा : तीन अर्थ - ( १ ) स्वाध्याय आदि की वेला (समय) का अतिक्रमण करके समाचारी भंग न करे, (२) यहाँ मैं शीतादि से पीड़ित हूँ, यह सोच कर वेला – समतावृत्ति का अतिक्रमण करके अन्यत्र - दूसरे स्थान में न जाए, (३) उच्च — उत्तम शय्या (उपाश्रय) को पाकर - 'अहो ! मैं कितना भाग्यशाली हूँ कि मुझे सभी ऋतुओं में सुखकारी ऐसी अच्छी शय्या ( वसति या उपाश्रय) मिला है, ' अथवा अवच (खराब) शय्या पाकर - आह! मैं कितना अभागा हूँ कि मुझे शीतादि निवारक शय्या भी नहीं मिली, इस प्रकार हर्षविषादादि करके समतारूप अति उत्कृष्ट मर्यादा का विघात — उल्लंघन न करे । १
कल्लाणं अदु पावगं : तीन अर्थ - ( १ ) कल्याण – शोभन, अथवा पापक — अशोभन — धूल, कचरा, गन्दगी आदि से भरा होने से खराब, (२) साताकारी असाताकारी, अथवा पारिपारिवक वातावरण अच्छा होने से शांति एवं समाधिदायक होने से मंगलकारी और पारिपारिवक वातावरण गन्दा, कामोत्तेजक, अश्लील, हिंसादि-प्रोत्साहक होने से तथा कोलाहल होने से अशान्तिप्रद एवं असमाधिदायक अथवा वहाँ किसी व्यन्तरादि का उपद्रव होने से तथा स्वाध्याय - ध्यानादि में विघ्न पड़ने से अमंगलकारी, अथवा (३) किसी पुण्यशाली के द्वारा निर्मित विविध मणिकिरणों से प्रकाशित, सुदृढ़, मणिनिर्मित स्तम्भों से तथा चाँदी आदि धातु की दीवारों से समृद्ध, प्रकाश और हवा से युक्त वसति-उपाश्रय कल्याणरूप है और जीर्ण-शीर्ण, टूटा-फूटा, खण्डहर - सा बना हुआ, टूटे हुए दरवाजों से युक्त, ठूंठ या लकड़ियों की छत से ढका, जहाँ इधरउधर घास, कूड़ा-कचरा, धूल, राख, भूसा बिखरा पड़ा है, यत्र-तत्र चूहों के बिल हैं, नेवले, बिल्ली, कुत्तों आदि का अबाध प्रवेश है, मलमूत्र आदि की दुर्गन्ध से भरा है, मक्खियाँ भिनभिना रही हैं, ऐसा उपाश्रय पापरूप
है।
अहियासए : दो अर्थ – (१) सुख हो या दुःख, समभावपूर्वक सहन करे, (२) वहाँ रहे । (१२) आक्रोशपरीषह
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२४. अक्कोसेज परो भिक्खुं न तेसिं पडिसंजले ।
सरिसो होइ बालाणं तम्हा भिक्खू न संजले ॥
[२४] यदि कोई भिक्षु को गाली दे तो उसके प्रति क्रोध न करे। क्रोध करने वाला भिक्षु बालकों ( अज्ञानियों) के सदृश हो जाता है, इसलिए भिक्षु (आक्रोशकाल में) संज्वलित न हो (-क्रोध से भभके
नहीं) ।
२५. सोच्चाणं फरुसा भासा दारुणा गाम- कण्टगा । तुसिणीओ उवेहेज्जा न ताओ मणसीकरे ॥
[२५] दारुण (असह्य) ग्रामकण्टक (कांटे की तरह चुभने वाली) कठोर भाषा को सुनकर भिक्षु मौन रहे, उसकी उपेक्षा करे, उसे मन में भी न लाए ।
विवेचन- आक्रोशपरीषह : स्वरूप और सहन - मिथ्यादर्शन के उद्रेक से क्रोधाग्नि को उद्दीप्त करने वाले क्रोधरूप, आक्रोशरूप, कठोर, अवज्ञाकर, निन्दारूप, तिरस्कारसूचक असभ्य वचनों को सुनते हुए भी जिसका चित्त उस ओर नहीं जाता, यद्यपि तत्काल उसका प्रतीकार करने में समर्थ है, फिर भी यह सब
१. बृहद्वृत्ति, पत्र १०९ २. (क) पत्र १०९ - ११० (ख) उत्तरा (साध्वी चन्दना), पृ. २२