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________________ ४० उत्तराध्ययनसूत्र करना निषद्यापरीषहजय है। जो इस निषद्याजनित बाधाओं को समभावपूर्वक सहन करता है, वह निषद्यापरीषहविजयी कहलाता है। सुसाणे सुन्नगारे रुक्खमूले- इन तीनों का अर्थ स्पष्ट है। ये तीनों एकान्त स्थान के द्योतक हैं। इनमें विशिष्ट साधना करने वाले मुनि ही रहते हैं।२ (११) शय्यापरीषह २२. उच्चावयाहिं सेज्जाहिं तवस्सी भिक्खु थामवं। नाइवेलं विहन्नेजा पावदिट्ठी विहन्नई॥ [२२] ऊँची-नीची (-अच्छी-बुरी) शय्या (उपाश्रय) के कारण तपस्वी और (शीतातपादिसहन-) सामर्थ्यवान् भिक्षु (संयम-) मर्यादा को भंग न करे (हर्ष-विषाद न करे), पापदृष्टि वाला साधु ही (हर्ष-विषाद से अभिभूत होकर) मर्यादा-भंग करता है। २३. पइरिक्कुवस्सयं लद्धं कल्लाणं अदु पावगं।। 'किमेगरायं करिस्सइ' एवं तत्थऽहियासए॥ [२३] प्रतिरिक्त (स्त्री आदि की बाधा से रहित एकान्त) उपाश्रय पाकर, भले ही वह अच्छा हो या बुरा; उसमें मुनि समभावपूर्वक यह सोच कर रहे कि यह एक रात क्या करेगी? (-एक रात्रि में मेरा क्या बनता-बिगड़ता है?) तथा जो भी सुख-दुःख हो उसे सहन करे। विवेचन-शय्यापरीषह : स्वरूप और विजय स्वाध्याय, ध्यान और विहार के श्रम के कारण थककर खर (खुरदरा), विषम (ऊबड़-खाबड़) प्रचुर मात्रा में कंकड़ों, पत्थर के टुकड़ों या खप्परों से व्याप्त, अतिशीत या अतिउष्ण भूमि वाले गंदे या सीलन भरे, कोमल या कठोर प्रदेश वाले स्थान या उपाश्रय को पाकर आर्त्त-रौद्रध्यान रहित होकर समभाव से साधक का निद्रा ले लेना, यथाकृत एक पार्श्वभाग से या दण्डायित आदि रूप से शयन करना, करवट लेने से प्राणियों को होने वाली बाधा के निवारणार्थ गिरे हुए लकड़ी के टुकड़े के समान या मुर्दे के समान करवट न बदलना, अपना चित्त ज्ञानभावना में लगाना, देव-मनुष्य-तिर्यञ्चकृत उपसर्गों से विचलित न होना, अनियतकालिक शय्याकृत (आवासस्थान सम्बन्धी) बाधा को सह लेना शय्यापरीषहजय है। जो साधक शय्या सम्बन्धी इन बाधाओं को सह लेता है, वह शय्यापरीषहविजयी है। ३ उच्चावयाहिं : तीन अर्थ-(१) ऊँची-नीची, (२) शीत, आतप, वर्षा आदि के निवारक गुणों के कारण या सहृदय सेवाभावी शय्यातर के कारण उच्च और इन से विपरीत जो सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि के निवारण के अयोग्य, बिलकुल खुली, जिसका शय्यातर कठोर एवं छिद्रान्वेषी हो, वह नीची (अवचा), (३) नाना प्रकार की। १. (क) पंचसंग्रह, द्वार ४ २. (क) दशवैकालिक १०/१२ ३ (क) पंचसंग्रह, द्वार ४ ४. बृहद्वृत्ति, पत्र १०९ (ख) तत्त्वार्थ. सर्वार्थसिद्धि ९/९/४२३/७ (ख) उत्तरा. मूल, अ१५/४, १६/३/१, ३२/ १२, १३/१६, ३५/४-९ (ख) सर्वार्थसिद्धि ९/९/४२३/११
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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