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________________ द्वितीय अध्ययन: परीषह-प्रविभक्ति ३९ एग एव : चार अर्थ - (१) एकाकी — राग-द्वेषविरहित, (२) निपुण, गुणी सहायक के अभाव में अकेला विचरण करने वाला गीतार्थ साधु, (३) प्रतिमा धारण करके तदनुसार आचरण करने के लिए जाने वाला अकेला साधु (४) कर्मसमूह नष्ट होने से मोक्षगामी या कर्मक्षय करने हेतु मोक्ष प्राप्तियोग्य अनुष्ठान के लिये जाने वाला एकाकी साधु । असमाणो : 'असमान' के ४ अर्थ- (१) गृहस्थ से असदृश (विलक्ष), (२) अतुल्य-विहारीजिसका विहार अन्यतीर्थिकों के तुल्य नहीं है, (३) अ + समान — मान = अहंकार ( आडम्बर) से रहित होकर, (४) असन् (असन्निहित) - जिसके पास कुछ भी संग्रह नहीं है— संग्रहरहित होकर । (१०) निषद्यापरीषह २०. सुसाणे सुन्नगारे वा रुक्ख मूले व एगओ । अकुक्कुओ निसीएज्जा न य वित्तासए परं ॥ [२०] श्मशान में, शून्यागार ( सूने घर) में अथवा वृक्ष के मूल में एकाकी ( रागद्वेषरहित) मुनि अचपलभाव से बैठे; आसपास के अन्य किसी भी प्राणी को त्रास न दे। २१. तत्थ से चिट्ठमाणस्स उवसग्गाभिधारए । संका-भीओ न गच्छेज्जा उट्ठित्ता अन्नमासणं ॥ [२१] वहाँ (उन स्थानों में ) बैठे हुए यदि कोई उपसर्ग आ जाए तो उसे समभाव से धारण करे, (कि 'ये मेरे अजर अमर अविनाशी आत्मा की क्या क्षति करेंगे?') अनिष्ट की शंका से भयभीत हो कर वहाँ से उठ कर अन्य स्थान (आसन) पर न जाए। विवेचन — निषद्यापरीषह : स्वरूप और विजय — निषद्या के अर्थ — उपाश्रय एवं बैठना ये दो हैं । प्रस्तुत में बैठना अर्थ ही अभिप्रेत है। अनभ्यस्त एवं अपरिचित श्मशान, उद्यान, गुफा, सूना घर, वृक्षमूल या टूटा-फूटा खण्डहर या ऊबड़-खाबड़ स्थान आदि स्त्री- पशु - नपुंसकरहित स्थानों में रहना, नियत काल तक निषद्या (आसन) लगा कर बैठना, वीरासन, आम्रकुब्जासन आदि आसन लगा कर शरीर से अविचल रहना, सूर्य के प्रकाश और अपने इन्द्रियज्ञान से परीक्षित प्रदेश में नियमानुष्ठान (प्रतिमा या कायोत्सर्गादि साधना) करना, वहाँ सिंह, व्याघ्र आदि की नाना प्रकार की भयंकर ध्वनि सुन कर भी भय न होना, नाना प्रकार का उपसर्ग, (दिव्य, तैर्यञ्च और मानुष्य) सहन करते हुए मोक्ष मार्ग से च्युत न होना; इस प्रकार निषद्याकृत बाधा का सहन १. एग एवेति रागद्वेषविरहितः, चरेत् अप्रतिबद्धविहारेण विहरेत् । सहायवैकल्यतो वा एकस्तथाविधः गीतार्थो, यथोक्तम्— न वा लभेज्जा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा । एक्को वि पावाइं विवज्जयंतो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥ - बृहद्वृत्ति, पत्र १०७ उत्तराध्ययन ३२, गा० ५ एक: उक्तरूपः स एवैककः एको वा प्रतिमाप्रतिपत्त्यादौ गच्छतीत्येकगः । एकं वा कर्मसाहित्यविगमतो मोक्षं गच्छति तत्प्राप्तियोग्यानुष्ठानप्रवृत्तेर्यातीत्येकगः । —बृहद्वृत्ति, पत्र १०९ २. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र १०७ (ख) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. ६७
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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