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उत्तराध्ययनसूत्र
परिज्ञात कहलाता है।
___ उदाहरण—कोशागणिकासक्त स्थूलभद्र ने विरक्त होकर आचार्य सम्भूतिविजय से दीक्षा ले ली। जब चातुर्मास का समय निकट आया तो गुरु की आज्ञा से स्थूलभद्रमुनि ने गणिकागृह में, शेष तीनों गुरुभाइयों में से एक ने सर्प की बांबी पर, एक ने सिंह की गुफा में और एक ने कुएँ के किनारे पर चातुर्मास किया। जब चारों मुनि चातुर्मास पूर्ण करके गुरु के पास पहुँचे तो गुरु ने स्थूलभद्र के कार्य को 'दुष्कर-दुष्करकारी' बताया, शेष तीनों शिष्यों को केवल दुष्करकारी कहा। पूछने पर समाधान किया कि सर्प, सिंह या कूपतटस्थान तो सिर्फ शरीर को हानि पहुँचा सकते थे, किन्तु गणिकासंग तो ज्ञान-दर्शन-चारित्र का सर्वथा उन्मूलन कर सकता था। स्थूलभद्र का यह कार्य तो तीक्ष्ण खग की धार पर चलने के समान या अग्नि में कूद कर भी न जलने जैसा है। यह स्त्री-परीषहविजय है। परन्तु एक साधु इस वचन पर अश्रद्धा ला कर अगली बार वेश्यागृह में चातुर्मास बिताने आया, मगर असफल हुआ। वह स्त्रीपरीषह में पराजित हो गया।२ (९) चर्या परीषह
१८. एग एव चरे लाढे अभिभूय परीसहे।
___गामे व नगरे वावि निगमे वा रायहाणिए॥ [१८] साधुजीवन की विभिन्न चर्याओं से लाढ (-प्रशंसति या आढ्य) मुनि परीषहों को पराजित करता हुआ एकाकी (राग-द्वेष से रहित) ही ग्राम में, नगर में, निगम में अथवा राजधानी में विचरण करे।
१९. असमाणो चरे भिक्खू नेव कुज्जा परिग्गहं।
__असंसत्तो गिहत्थेहिं अणिएओ परिव्वए॥ [१९] भिक्षु (गृहस्थादि से) असमान (असाधारण — विलक्षण) होकर विहार करे। ग्राम, नगर आदि में या आहारादि किसी पदार्थ में ममत्वबुद्धिरूप परिग्रह न करे। वह गृहस्थों से असंसक्त (असम्बद्धनिर्लिप्त) होकर रहे तथा सर्वत्र अनिकेत (गृहबन्धन से मुक्त) रहता हुआ परिभ्रमण करे।
विवेचन–चर्यापरीषह स्वरूप और विजय—बन्धमोक्षतत्त्वज्ञ तथा वायु की तरह नि:संगता और अप्रतिबद्धता धारण करके मासकल्पादि नियमानुसार तपश्चर्यादि के कारण अत्यन्त अशक्त होने पर भी पैदल विहार करना, पैर में कांटे, कंकड़ आदि चुभने से खेद उत्पन्न होने पर भी पूर्वभुक्त यान—वाहनादि का स्मरण न करना तथा यथाकाल सभी साधुचर्याओं का सम्यक् परिपालन करना चर्यापरीषह है। इस परीषह का विजयी चर्यापरीषहविजयी है।
लाढे चार अर्थ—(१) प्रासुक एषणीय आहार से अपना निर्वाह करने वाला, (२) साधुगुणों के द्वारा जीवनयापन करने वाला, (३) प्रशंसावाचक देशीय पद अर्थात्-शुद्ध चर्याओं के कारण प्रशंसित, (४) लाढ–राढदेश, जहाँ भगवान् महावीर ने विचरण करके घोर उपसर्ग सहन किये थे। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ९६ २. वही, पत्र ९६-९७ ३. (क) पंचसंग्रह, द्वार ४ (ख) तत्त्वार्थ. सर्वार्थसिद्धि ९/९/४२३/४ ४. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र १०७
लाढेत्ति-लाढेयति प्रासुकैषणीयाहारेण, साधुगुणैर्वाऽऽत्मानं यापयतीति लाढ: प्रशंसाभिधायि वा देशीपदमेतत् । (ख) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ०६६, सुखबोधा, पत्र ३१ (ग) लाढेस अ उवसग्गा घोरा....। - आवश्यकनियुक्ति, गा० ४८२