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________________ द्वितीय अध्ययन : परीषह-प्रविभक्ति ३७ भ्राता ने दीक्षा ले ली। वैद्यदेव के जाते ही उसने दीक्षा छोड़ दी। देव ने उसको पुन: जलोदररोगी बना दिया और दीक्षा अंगीकार करने पर ही उस वैद्यरूपधारी देव ने उसे छोड़ा। यों तीन बार उसने दीक्षा ग्रहण करने और छोड़ने का नाटक किया। चौथी बार वैद्यरूपधारी देव साथ रहा। आग से जलते हुए गांव में वह घास हाथ में लेकर प्रवेश करने लगा तो उक्त साधु ने कहा-'जलते हुए गाँव में क्यों प्रवेश कर रहे हो?' उसने कहा'आप मना करने पर भी कषायों से जलते हुए गृहवास में क्यों बार-बार प्रवेश करते हैं?' वह इस पर भी नहीं समझा। दोनों एक अटवी में पहुंचे, तब देव उन्मार्ग से चलने लगा। इस पर साधु ने कहा—'उन्मार्ग से क्यों जाते हो?' देव बोला—'आप विशुद्ध संयम मार्ग को छोड़ कर आधि-व्याधिरूप कण्टकाकीर्ण संसारमार्ग में क्यों जाते हैं?' इस पर भी वह नहीं समझा। फिर दोनों एक यक्षायतन में पहुँचे। यक्ष की बार-बार अर्चा करने पर भी वह अधोमुख गिर जाता था। इस पर साधु ने कहा—'यह अधम यक्ष पूजित होने पर भी अधोमुख क्यों गिर जाता है?' देव ने कहा—'आप इतने वन्दित-पूजित होने पर भी बार-बार संयममार्ग से क्यों गिर जाते हैं?' इस पर साधु चौंका। परिचय पूछ। देव ने अपना विस्तृत परिचय दिया। उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया और अब उसकी संयम में रुचि एवं दृढ़ता हो गई। जिस प्रकार मूक भ्राता की देवप्रतिबोध से संयम में रति हुई; इसी प्रकार साधु को संयम में अरति आ जाए तो उस पर ज्ञानबल से विजय पाना चाहिए। (८) स्त्रीपरीषह १६. 'संगो एस मणुस्साणं जाओ लोगंमि इथिओ।' जस्स एया परिन्नाया सुकडं तस्स सामण्णं॥ [१६.] 'लोक में जो स्त्रियाँ हैं. वे पुरुषों के लिए संग (—आसक्ति की कारण) हैं जिस साधक को ये यथार्थरूप में परिज्ञात हो जाता है, उसका श्रामण्य-साधुत्व सफल (सुकृत) होता है। १७. एवमादाय मेहावी ‘पंकभूया उ इथिओ'। नो ताहिं विणिहन्नेज्जा चरेज्जऽत्तगवेसए॥ [१७.] ब्रह्मचारी के लिये स्त्रियाँ पंक (–दलदल) के समान (फंसा देने वाली) हैं; इस बात को बुद्धि से भली भाँति ग्रहण करके मेधावी मुनि उनसे अपने संयमी जीवन का विनिघात (विनाश) न होने दे, किन्तु आत्मस्वरूप की गवेषणा करता हुआ (श्रमणधर्म में) विचरण करे। विवेचन-स्त्रीपरीषह : स्वरूप और विजय- एकान्त बगीचे या भवन आदि स्थानों में नवयौवना, मदविभ्रान्ता और कामोन्मत्ता एवं मन के शुभ संकल्पों का अपहरण करती हुई ललनाओं द्वारा बाधा पहुँचाने पर इन्द्रियों और मन के विकारों पर नियंत्रण कर लेना तथा उनकी मंद मुस्कान, कोमल, सम्भाषण, तिरछी नजरों से देखना, हँसना, मदभरी चाल से चलना और कामबाण मारना आदि को 'ये रक्त-मांस आदि अशुचि का पिण्ड है, मोक्षमार्ग की अर्गला है,' इस प्रकार के चिन्तन से तथा मन से, उनके प्रति कामबुद्धि न करके विफल कर देना स्त्रीपरीषहजय है और इस प्रकार चिन्तन करने वाले साधक स्त्रीपरीषहविजयी हैं।२ ___'परित्राया' शब्द की व्याख्या—इहलोक-परलोक में ये महान् अनर्थहेतु हैं' इस प्रकार ज्ञपरिज्ञा से सब प्रकार से स्त्रियों का स्वरूप विदित कर लेना और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से मन से उनकी आसक्ति त्याग देना, १. बृहद्वृत्ति, पत्र ९५ २. (क) पंचसंग्रह, द्वार ४, (ख) सर्वार्थसिद्धि, ९/९/९/४२२/११
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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