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________________ उत्तराध्ययनसूत्र (१४) एक गाँव से दूसरे गाँव विचरण करते हुए अकिंचन (निर्ग्रन्थ) अनगार के मन में यदि कभी संयम के प्रति अरति (- अरुचि = अधृति) उत्पन्न हो जाए तो उस परीषह को सहन करे। १५. अरई पिट्ठओ किच्चा विरए आय-रक्खिए। धम्मारामे निरारम्भे उवसन्ते मुणी चरे॥ [१५] (हिंसा आदि से) विरत, (दुर्गतिहेतु दुर्ध्यानादि से) आत्मा की रक्षा करने वाला, धर्म में रतिमान् (आरम्भप्रवृत्ति से दूर) निरारम्भ मुनि (संयम में) अरति को पीठ देकर (अरुचि से विमुख होकर) उपशान्त हो कर विचरण करे। विवेचन–अरतिपरीषह : स्वरूप और विजय-गमनागमन, विहार, भिक्षाचर्या, साधु समाचारीपालन, अहिंसादिपालन, समिति-गुप्ति-पालन आदि संयमसाधना के मार्ग में अनेक कठिनाइयों-असुविधाओं के कारण अरुचि न लाते हुए धैर्यपूर्वक उसमें रस लेना, धर्मरूपी आराम (बाग) में स्वस्थचित्त होकर सदैव विचरण करना, अरतिपरीषहजय है। अरतिमोहनीयकर्मजन्य मनोविकार है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार जो संयमी साधु इन्द्रियों के इष्टविषय-सम्बन्ध के प्रति निरुत्सुक है, जो गीत-नृत्य-वादित्र आदि से रहित शून्य घर, देवकुल, तरुकोटर या शिला, गुफा आदि में स्वाध्याय, ध्यान और भावना में रत है, पहले देखे हुए, सुने हुए और अनुभव किये हुए विषय-भोगों के स्मरण, विषय-भोग सम्बन्धी कथा के श्रवण तथा काम-शर प्रवेश के लिए जिसका हृदय निश्छिद्र है एवं जो प्राणियों पर सदैव दयावान् है, वही अरतिपरीषहजयी है। धम्मारामे—दो अर्थ—(१) धर्मारामः-जो साधक सब ओर से धर्म में रमण करता है, (२) धर्मारामः-पालनीय धर्म ही जिस साधक के लिए आनन्द का कारण होने से आराम (बगीचा) है. वह।२ उदाहरण-कौशाम्बी में तापसश्रेष्ठी मर कर अपने घर में ही 'सूअर' बना। एक दिन उसके पुत्रों ने उस सूअर को मार डाला, वह मर कर वहीं सर्प हुआ। उसे जातिस्मरणज्ञान हुआ। पूर्वभव के पुत्रों ने उसे भी मार दिया। मर कर वह अपने पुत्र का पुत्र हुआ। जातिस्मरणज्ञान होने से वह संकोचवश मूक रहा। एक बार चार ज्ञान के धारक आचार्य ने उसकी स्थिति जान कर उसे प्रतिबोध दिया, वह श्रावक बना। एक अमात्यपुत्र पूर्वजन्म में साधु था, मरकर देव बना था. वही उक्त मक के पास आया और बोला-मैं तुम्हारा भाई बनँगा, तुम मझे धर्मबोध देना। मूक ने स्वीकार किया। वह देव मूक की माता की कुक्षि से जन्मा। मूक उसे साधुदर्शन आदि को ले जाता परन्तु वह दुर्लभबोधि किसी तरह भी प्रतिबुद्ध न हुआ। अतः मूक ने दीक्षा ले ली। चारित्रपालन कर वह देव बना। मूक के जीव देव ने अपनी माया से अपने भाई को प्रतिबोध देने के लिए जलोदर-रोगी बना दिया। स्वयं वैद्य के रूप में आया। जलोदर-रोगी ने उसे रोगनिवारण के लिए कहा तो वैद्य रूप देव ने कहा'तुम्हारा असाध्य रोग मैं एक ही शर्त पर मिटा सकता हूँ, वह यह कि तुम पीछे-पीछे यह औषध का बोरा उठा कर चलो।' रोगी ने स्वीकार किया। वैद्यरूप देव ने उसका जलोदररोग शान्त कर दिया। अब वह वैद्यरूप देव के पीछे-पीछे औषधों के भारी भरकम बोरे को उठाए-उठाए चलता। उसे छोड़कर वह घर नहीं जा सकता था। जाऊँगा तो पुनः जलोदर रोगी बन जाऊँगा, यह डर था। एक गाँव में कुछ साधु स्वाध्याय कर रहे थे। वैद्यरूप देव ने उससे कहा—'यदि तू इससे दीक्षा ले लेगा तो मैं तुझे शर्त से मुक्त कर दूंगा।' बोझ ढोने से घबराए हुए मूक १. (क) आवश्यक, अ० ४ (ख) तत्त्वार्थ. सर्वार्थसिद्धि, ९/९/४१२/७ २. बृहद्वृत्ति, पत्र ९४
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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