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द्वितीय अध्ययन : परीषह-प्रविभक्ति
अहा! नये वस्त्र मिलने पर फिर मैं सचेलक हो जाऊँगा'; मुनि ऐसा चिन्तन न करे। (अर्थात् —दैन्य और हर्ष दोनों प्रकार का भाव न लाए।)
१३. 'एगयाऽचेलए होइ सचेले यावि एगया।'
एयं धम्महियं नच्चा नाणी नो परिदेवए॥ [१३] विभिन्न एवं विशिष्ट परिस्थितियों के कारण साधु कभी अचेलक भी होता है और कभी सचेलक भी होता है। दोनों ही स्थितियाँ यथाप्रसंग मुनिधर्म के लिए हितकर समझ कर ज्ञानवान् मुनि (वस्त्र न मिलने पर) खिन्न न हो।
विवेचन—एगया' शब्द की व्याख्या- गाथा में प्रयुक्त एगया (एकदा) शब्द से मुनि की जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक अवस्थाएँ तथा वस्त्राभाव एवं सवस्त्र आदि अवस्थाएँ परिलक्षित होती हैं। चूर्णिकार के अनुसार मुनि जब जिनकल्प-अवस्था को स्वीकार करता है तब अचेलक होता है। अथवा स्थविरकल्पअवस्था में वह दिन में, ग्रीष्मऋतु में या वर्षाऋतु में वर्षा नहीं पड़ती हो तब अचेलक रहता है। शिशिररात्र (पौष और माघ), वर्षारात्र (भाद्रपद और आश्विन), वर्षा गिरते समय तथा प्रभातकाल में भिक्षा के लिए जाते समय वह सचेलक रहता है।
बृहद्वृत्ति के अनुसार जिनकल्प-अवस्था में मुनि अचेलक होता है तथा स्थविरकल्प-अवस्था में भी जब वस्त्र दुर्लभ हो जाते हैं या सर्वथा वस्त्र मिलते नहीं या वस्त्र उपलब्ध होने पर भी वर्षाऋतु के विना उन्हें धारण न करने की परम्परा होने से या वस्त्रों के जीर्णशीर्ण हो जाने पर वह अचेलक हो जाता है।
इस पर से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि स्थविरकल्पी मुनि अपने साधनाकाल में ही अचेलक और सचेलक दोनों अवस्थाओं में रहता है। इसी का समर्थन आचारांगसूत्र में मिलता है—'हेमन्त के चले जाने और ग्रीष्म के आ जाने पर मुनि एकशाटक (एक चादर ग्रहण करने वाला या) अचेल हो जाए'।२
रात को हिमपात, ओस आदि के जीवों की हिंसा से बचने तथा वर्षाकाल में जल-जीवों से बचने के लिए वस्त्र पहनने-ओढ़ने का भी विधान मिलता है।
स्थानांगसूत्र में पांच कारणों से अचेलक को प्रशस्त माना गया है—(१) उसके प्रतिलेखना अल्प होती है, (२) उपकरण तथा कषाय का लाघव होता है, (३) उसका रूप वैश्वासिक (विश्वस्त) होता है, (४) उसका तप (उपकरणसंलीनता रूप) जिनानुमत होता है और (५) विपुल इन्द्रिय-निग्रह होता है।
इसी अध्ययन की ३४ और ३५वीं गाथा में जो अचेलकत्व फलित होता है वह भी जिनकल्पी या विशिष्ट अभिग्रहधारी मुनि की अपेक्षा से है। (७) अरतिपरीषह
१४. गामाणुगामं रीयन्तं अणगारं अकिंचणं।
अरई अणुप्पविसे तं तितिक्खे परीसहं॥ १. (क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० ६० (ख) बृहवृत्ति, पत्र ९२-९३ (ग) सुखबोधा., पत्र २२ २. आचारांग १/८/४/५०-५२ ३. तह निसि चाउक्कालं सज्झाय-झाणसाहणमिसीणं।
हिम-महिया वासोसारयाइरक्खाविमित्तं तु ॥ -बृहद्वृत्ति, पत्र ९६ ४. स्थानांग, स्थान ५, उ०३, सु०४५५५. उत्तरा० अ०२, गा०३४-३५