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________________ उत्तराध्ययनसूत्र (१०) महामुनि डांस एवं मच्छरों के उपद्रव से पीड़ित होने पर भी समभाव में ही स्थिर रहे। जैसे—युद्ध के मोर्चे पर (अगली पंक्ति में) रहा हुआ शूर हाथी (बाणों की परवाह न करता हुआ) शत्रुओं का हनन करता है, वैसे ही शूरवीर मुनि भी परीषह - बाणों की कुछ भी परवाह न करता हुआ क्रोधादि (या रागद्वेषादि) अन्तरंग शत्रुओं का दमन करे । ३४ १९. न संतसे न वारेज्जा मणं पि न पओसए । उवे न हणे पाणे भुंजन्ते मंस - सोणियं ॥ [११] (दंश-मशकपरीषहविजेता) भिक्षु उन ( दंश - मशकों के उपद्रव) से संत्रस्त (-उद्विग्न) न हो और न उन्हें हटाए । (यहाँ तक कि ) मन में भी उनके प्रति द्वेष न लाए। मांस और रक्त खाने-पीने पर भी उपेक्षाभाव (उदासीनता) रखे, उन प्राणियों को मारे नहीं । विवेचन — दंशमशकपरीषह : स्वरूप और व्याख्या— यहाँ दंश - मशकपद से उपलक्षण से जूं, लख, खटमल, पिस्सू, मक्खी, छोटी मक्खी, कीट, चींटी, बिच्छू आदि का ग्रहण करना चाहिए। शान्त्याचार्य ने मांस काटने और रक्त पीने वाले अत्यन्त पीड़क - (दंशक) शृगाल, भेड़िये, गिद्ध, कौए आदि तथा भयंकर हिंस्र वन्य प्राणियों को भी 'दंशमशक' के अन्तर्गत गिनाया है। अतः देह को पीड़ा पहुँचाने वाले उपर्युक्त दंशमशकादि प्राणियों के द्वारा मांस काटने, रक्त चूसने या अन्य प्रकार से पीड़ा पहुँचाने पर भी मुनि द्वारा उन्हें हटाने-भगाने के लिए धुंआ आदि न करना या पंखे आदि से न हटाना, उन पर द्वेषभाव न लाना, न मारना, ये बेचारे अज्ञानी आहारार्थी हैं, मेरा शरीर इनके लिए भोज्य है, भले ही खाएँ, इस प्रकार उपेक्षा रखना दंशमशकपरी षहजय है। उपर्युक्त शरीर पीड़क प्राणियों द्वारा की गई बाधाओं को विना प्रतीकार किये सहन करता है, मन-वचन-काय से उन्हें बाधा नहीं पहुँचाता, उस वेदना को समभाव से सह लेता है, वही मुनि दंशमशकपरीषह विजयी है । १ 'न संतसे': दो अर्थ (१) दंशमशक, आदि से संत्रस्त — उद्विग्न—क्षुब्ध न हो, (२) दंशमशकादि से व्यथित किये जाने पर भी हाथ, पैर आदि अंगों को हिलाए नहीं । २ उदाहरण – चम्पानगरी के जितशत्रु राजा के पुत्र युवराज सुमनुभद्र ने सांसारिक कामभोगों से विरक्त होकर धर्मघोष आचार्य से दीक्षा ली। एकलविहारप्रतिमा अंगीकार करके वह एक बार सीलन वाले निचले प्रदेश में विहार करता हुआ, शरत् काल में एक अटवी में रात को रह गया। रात भर में उसे भयंकर मच्छरों ने काटा; फिर भी समभाव से उसने सहन किया। फलतः उसी रात्रि में कालधर्म पा कर वह देवलोक में गया । ३ (६) अचेलपरीषह १२. 'परिजुण्णेहि वत्थेहिं होक्खामि त्ति अचेलए।' अदुवा सचेल होक्खं' इइ भिक्खू न चिन्तए ॥ [१२] 'वस्त्रों के अत्यन्त जीर्ण हो जाने से अब मैं अचेलक (निर्वस्त्र - नग्न) हो जाऊँगा; अथवा १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ९१ (ख) पंचसंग्रह, द्वार ४, (ग) सर्वार्थसिद्धि ९ / ९ / ४२१/१० २. (क) न संत्रसेत् नोद्विजेत् दंशादिभ्य इति गम्यते यद्वाऽनेकार्थत्वाद्धातूनां न कम्पयेत्तैस्तुद्यमानोऽपि अंगानीति शेष: । - - बृहद्वृत्ति, पत्र ९१ (ख) न संत्रसति अंगानि कम्पयति विक्षिपति वा । — उत्तरा० चूर्णि पृ० ५९ ३. बृहद्वृत्ति पत्र ९१
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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