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________________ द्वितीय अध्ययन : परीषह-प्रविभक्ति साधु द्वारा अंगीकृत मर्यादा के विरुद्ध सचित्त जल न लेकर समभावपूर्वक उक्त वेदना को सहना पिपासा-परीषह है। सर्वार्थसिद्धि' में बताया गया है कि जो अतिरूक्ष आहार, ग्रीष्मकालीन आतप, पित्तज्वर और अनशन आदि के कारण उत्पन्न हुई तथा शरीर और इन्द्रियों का मंथन करने वाली पिपासा का (सचित्त जल पी कर) प्रतीकार करने में आदरभाव नहीं रखता और पिपासारूपी अग्नि को संतोषरूपी नए मिट्टी के घड़े में भरे हुए शीतल सुगन्धित समाधिरूपी जल से शान्त करता है, उसका पिपासापरीषहजय प्रशंसनीय है। __ सीओदगं—का अर्थ 'ठंडा पानी' इतना ही करना भ्रान्तिमूलक है, क्योंकि ठंडा जल सचित्त भी होता है, अचित्त भी। अत: यहाँ शीतोदक अप्रासुक-सचित्त जल का सूचक है। वियडस्स—विकृत जल—अग्नि या क्षारीय पदार्थों आदि से विकृति को प्राप्त—शास्त्रपरिणत अचित्त पानी को कहते हैं। दृष्टान्त-उज्जयिनीवासी धनमित्र, अपने पुत्र धनशर्मा के साथ प्रव्रजित हुआ। एक दिन वे दोनों अन्य साधुओं के साथ एलकाक्ष नगर की ओर रवाना हुए। क्षुल्लक साधु अत्यन्त प्यासा था। उसका पिता धनमित्र मुनि उसके पीछे-पीछे चल रहा था। रास्ते में नदी आई। पिता ने कहा—'लो पुत्र, यह पानी पी लो। धनमित्र नदी पार करके एक ओर खड़ा रहा। धनशर्मा मुनि ने नदी को देख कर सोचा—'मैं इन जीवों को कैसे पी सकता हूँ?" उसने पानी नहीं पिया। अत: वहीं समभाव से उसने शरीर छोड़ दिया। मर कर देव बना। उस देव ने साधुओं के लिए स्थान-स्थान पर गोकुलों की रचना की और मुनियों को छाछ आदि देकर पिपासा शान्त की। सभी मुनिगण नगर में पहुँचे। पिछले गोकुल में एक मुनि अपना आसन भूल गए, अत: वापस लेने आए, पर वहाँ न तो गोकुल था, न आसन । सभी साधुओं ने इसे देवमाया समझी। बाद में वह देव आकर अपने भूतपूर्व पिता (धनमित्र मुनि) को छोड़ कर अन्य सभी साधुओं को वन्दन करने लगा। धनमित्र मुनि को वन्दन न करने का कारण पूछने पर बताया कि इन्होंने मुझे कहा था कि तू नदी का पानी पी ले । यदि मैं उस समय सचित्त जल पी लेता तो संसार-परिभ्रमण करता।' यों कह कर देव लौट गया। इसी तरह पिपासापरीषह सहन करना चाहिए। (३) शीतपरीषह ६. चरन्तं विरयं लूहं सीयं फुसइ एगया। नाइवेलं मुणी गच्छे सोच्चाणं जिणसासणं॥ [६] (अग्निसमारम्भादि से अथवा असंयम से) विरत और (स्निग्ध भोजनादि के अभाव में) रूक्ष (अथवा अनासक्त) हो कर (ग्रामानुग्राम अथवा मुक्तिमार्ग में) विचरण करते हुए मुनि को एकदा (शीतकाल आदि में) सर्दी सताती है, फिर भी मननशील मुनि जिनशासन (वीतराग की शिक्षाओं) को सुन (समझ) कर अपनी वेला (साध्वाचार-मर्यादा का अथवा स्वाध्याय आदि की वेला) का अतिक्रमण न करे। ७. 'न मे निवारणं अत्थि छवित्ताणं न विज्जई। __ अहं तु अग्गिं सेवामि' -इह भिक्खू न चिन्तए॥ १. (क) आवश्य. मलयगिरि टीका १ अ० (ख) सर्वार्थसिद्धि ९/९/४२०/१२ २. (क) शीतं शीतलं, स्वरूपस्थतोयोपलक्षणमेतत् ततः स्वकायादिशस्त्रानुपहतमप्रासुकमित्यर्थः। (ख) 'वियडस्स त्ति'-विकृतस्य वह्नयदना विकारं प्रापितस्य, प्रासुकस्येति यावत; प्रक्रमादुदकस्य।-बृ०, पत्र ८६ ३. वही, पत्र ८७
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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