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[७] (शीतपरीषह से आक्रान्त होने पर) भिक्षु ऐसा न सोचे कि 'मेरे पास शीत के निवारण का साधन नहीं है तथा ठंड से शरीर की रक्षा करने के लिए कम्बल आदि वस्त्र भी नहीं हैं, तो क्यों न मैं अग्नि का सेवन कर लूं।'
विवेचन — शीतपरीषह : स्वरूप — बंद मकान न मिलने पर शीत से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी साधु द्वारा अकल्पनीय अथवा मर्यादा-उपरान्त वस्त्र न लेकर तथा अग्नि आदि न जला कर, न जलवा कर तथा अन्य लोगों द्वारा प्रज्वलित अग्नि का सेवन न कर के शीत के कष्ट को समभावपूर्वक सहना शीतपरीषह है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार• पक्षी के सामान जिसके आवास निश्चित नहीं हैं, वृक्षमूल, चौपथ या शिलातल पर निवास करते हुए बर्फ के गिरने पर, ठंडी बर्फीली हवा के लगने पर उसका प्रतीकार करने की इच्छा से जो निवृत्त है, पहले अनुभव किये गए प्रतीकार के हेतुभूत पदार्थों का जो स्मरण नहीं करता, और जो ज्ञानभावनारूपी गर्भागार में निवास करता है, उसका शीतपरीषहविजय प्रशंसनीय है ।
उत्तराध्ययनसूत्र
दृष्टान्त — राजगृह के नगर के चार मित्रों ने भद्रबाहुस्वामी के पास दीक्षा ग्रहण की। शास्त्राध्ययन करके पैरों ने एकलविहारप्रतिमा अंगीकार की। एक वार वे तृतीय प्रहर में भिक्षा लेकर लौट रहे थे। सर्दी का मौसम था। पहले मुनि को आते-आते चौथा प्रहर वैभारगिरि की गुफा के द्वार तक बीत गया। वह वहीं रह गया। दूसरा नगरोद्यान तक, तीसरा उद्यान के निकट पहुँचा चौथा मुनि नगर के पास पहुँचा तब तक चौथा प्रहर समाप्त हो गया । अतः ये तीनों भी जहाँ पहुँचे थे वहीं ठहर गए। इनमें से सबसे पहले मुनि का, जो वैभारगिरि की गुफा द्वार पर ठहरा था, भयंकर सर्दी से पीड़ित होकर रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वर्गवास हो गया। दूसरा मुनि दूसरे प्रहर में, तीसरा तीसरे प्रहर में और चौथा मुनि चौथे प्रहर में स्वर्गवासी हुआ। ये चारों शीतपरीषह सहने के कारण मर कर देव बने। इसी प्रकार प्रत्येक साधु-साध्वी को समतापूर्वक शीतपरीषह सहना चाहिए। (४) उष्णपरीषह
उसिण-परियावेणं परिदाहेण तज्जिए । घिसु वा परियावेणं सायं नो परिदेवए ॥
[८] गर्म भूमि, शिला, लू आदि के परिताप से, पसीना, मैल या प्यास के दाह से अथवा ग्रीष्मकालीन सूर्य के परिताप से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी मुनि ठंडक, शीतकाल आदि के सुख के लिए विलाप न करे - व्याकुल न बने ) ।
९.
८.
१.
उहाहितत्ते मेहावी सिणाणं नो वि पत्थए । गायं नो परिसिंचेज्जा न वीएज्जा य अप्पयं ॥
[९] गर्मी से संतप्त होने पर भी मेधावी मुनि नहाने की इच्छा न करे और न ही जल से शरीर को सींचे- (गीला करे) तथा पंखे आदि से थोड़ी-सी भी ( अपने शरीर पर ) हवा न करे ।
विवेचन — उष्णपरिषह : स्वरूप एवं विजय - दाह, ग्रीष्मकालीन सूर्यकिरणों का प्रखर ताप, लू,
(क) बृहद्वृत्ति, पत्र ८७ (ख) सर्वार्थसिद्धि ९/९/६२१ / ३२. बृहद्वृत्ति पत्र ८७