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________________ उत्तराध्ययनसूत्र उसे धमनिसन्तत' कहते हैं । 'धम्मपद' में भी 'धमनिसन्थतं' शब्द का प्रयोग आया है, जिसका अर्थ है—'नसों से मढ़े शरीर वाली'। भागवत में भी 'एवं चीर्णेन तपसा मुनिर्धमनिसन्ततः' प्रयोग आया है। वहाँ भी यही अर्थ है। वस्तुतः उत्कट तप के कारण शरीर के रक्त-मांस सूख जाने से वह अस्थिचर्मावशेष रह जाता है, तब उस कृश शरीर के लिए ऐसा कहा जाता है। तृतीय गाथा का निष्कर्ष-क्षुधा से अत्यन्त पीड़ित होने पर नवकोटि शुद्ध आहार प्राप्त होने पर भी भिक्षु लोलुपतावश अतिमात्रा में आहार-सेवन न करे तथा नवकोटि शुद्ध आहार मात्रा में भी न मिलने पर दैन्यभाव न लाए, अपितु क्षुत्परीषह सहन करे।२।। दृष्टान्त–हस्तिमित्र मुनि अपने गृहस्थपक्षीय पुत्र हस्तिभूत के साथ दीक्षित होकर विचरण करते हुए भोजकटक नगर के मार्ग में एक अटवी में पैर में कांटा चुभ जाने से आगे चलने में असमर्थ हो गए। साधुओं ने कहा—'हम आपको अटवी पार करा देंगे।' परन्तु हस्तिमित्र मुनि ने कहा- मेरी आयु थोड़ी है। अत: मुझे यहीं अनशन करा कर आप लोग इस क्षुल्लक साधु को लेकर चले जाइए। उन्होंने वैसा ही किया। परन्तु क्षुल्लक साधु पिता के मोहवश आधे रास्ते से वापस लौट आया। पिता (मुनि) कालधर्म पा चुके थे। किन्तु क्षुल्लक साधु उसे जीवित समझ कर वहीं भूखा-प्यासा घूमता रहा, किन्तु फलादि तोड़ कर नहीं खाए । देव बने हुए हस्तिमित्र मुनि अपने शरीर में प्रविष्ट होकर क्षुल्लक से कहने लगे-पुत्र, भिक्षा के लिए जाओ। देवमाया से निकटवर्ती कुटीर में बसे हुए नर-नारी भिक्षा देने लगे। उधर दुर्भिक्ष समाप्त होने पर वे साधु भोजकटक नगर से वहाँ लौटे, क्षुल्लक साधु को लेकर आगे विहार किया। सबने क्षुधात क्षुल्लक साधु के द्वारा क्षुधापरीषह सहन करने की प्रशंसा की। (२) पिपासा-परीषह ४. तओ पुट्ठो पिवासाए दोगुंछी लज-संजए। सीओदगं न सेविज्जा वियडस्सेसणं चरे॥ [४] असंयम (-अनाचार) से घृणा करने वाला, लज्जाशील संयमी भिक्षु पिपासा से आक्रान्त होने पर भी शीतोदक (–सचित्त जल) का सेवन न करे, किन्तु प्रासुक जल की गवेषणा करे। ५. छिन्नावाएसु पन्थेसु आउरे सुपिवासिए। परिसुक्क-मुहेऽदीणे तं तितिक्खे परीसहं॥ [५] यातायातशून्य एकान्त निर्जन मार्ग में भी तीव्र पिपासा से आतुर (व्याकुल) होने पर, (यहाँ तक कि) मुख सूख जाने पर भी मुनि अदीनभाव से उस (पिपासा-) परीषह को सहन करे। विवेचन–प्यास की चाहे जितनी और चाहे जहाँ (बस्ती में या अटवी में) वेदना होने पर भी तत्त्वज्ञ १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ८४, (ख) भागवत, ११/१८/९ (ग) पंसूकूलधरं जन्तुं किसं धमनिसन्थतं। एकं वनस्मि झायंतं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥ -धम्मपद २. बृहद्वृत्ति, पत्र ८४ ३. वही, पत्र ८५
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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