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________________ द्वितीय अध्ययन : परीषह - प्रविभक्ति (१) क्षुधा परीषह २. दिगिंच्छा - परिगए देहे तवस्सी भिक्खू थामवं । न छिन्दे, न छिन्दावए न पए, न पयावए ॥ [२] शरीर में क्षुधा व्याप्त होने पर भी संयमबल से युक्त भिक्षु फल आदि का स्वयं छेदन न करे और न दूसरों से छेदन कराए, उन्हें न स्वयं पकाए और न दूसरों से पकवाए । ३. काली - पव्वंग-संकासे किसे धमणि - संतए । मायने असण- पाणस्स अदीण मणसो चरे ॥ [३.] (दीर्घकालिक क्षुधा के कारण) शरीर के अंग काकजंघा (कालीपर्व) नामक तृण जैसे सूख कर पतले हो जाएँ, शरीर कृश हो जाए, धमनियों का जालमात्र रह जाए, तो भी अशन-पानरूप आहार की मात्रा (मर्यादा) को जानने वाला भिक्षु अदीनमना ( - अनाकुल- चित्त) कर (संयममार्ग में) विचरण करे । १. २९ विवेचन-क्षुधापरीषह : स्वरूप और प्रथम स्थान का कारण - 'क्षुधासमा नास्ति शरीरवेदना' (भूख के समान कोई भी शारीरिक वेदना नहीं है) कह कर चूर्णिकार ने क्षुधा - परीषह को परीषहों में सर्वप्रथम स्थान देने का कारण बताया है । क्षुधा की चाहे जैसी वेदना उठने पर संयम भीरु साधु के द्वारा आहार पकाने-पकवाने, फलादि का छेदन करने - कराने, खरीदने - खरीदाने की वाञ्छा से निवृत्त होकर तथा अपनी स्वीकृत मर्यादा के विपरीत अनेषणीय अकल्पनीय आहार न लेकर क्षुधा को समभावपूर्वक सहना क्षुधापरीषह है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार क्षुधावेदना की उदीरणा होने पर निरवद्य आहारगवेषी जो भिक्षु निर्दोष भिक्षा न मिलने पर या अल्प मात्रा में मिलने पर क्षुधावेदना को सहता है, किन्तु अकाल या अदेश में भिक्षा नहीं लेता, लाभ की अपेक्षा अलाभ को अधिक गुणकारी मानता है, वह क्षुधापरीषह - विजयी है। क्षुधापरीषह - विजयी नवकोटि विशुद्ध भिक्षामर्यादा का अतिक्रमण नहीं करता, यह शान्त्याचार्य का अभिमत है । २. काली - पव्वंग-संकासे— कालीपर्व का अर्थ चूर्णिकार, बृहद्वृत्तिकार 'काकजंघा' नामक तृणविशेष करते हैं। मुनि नथमलजी के मतानुसार हिन्दी में इसे 'घुंघची या गुंजा का वृक्ष' कहा जाता है। परन्तु यह अर्थ समीचीन नहीं प्रतीत होता, क्योंकि गुंजा का वृक्ष नहीं होता, वेल होती है। डॉ. हरमन जेकोबी, डॉ. सांडेसरा आदि ने 'काकजंघा' का अर्थ 'कौए की जंघा' किया है। बृहद्वृत्ति के अनुसार काकजंघा नामक तृणवृक्ष के पर्व स्थूल और उसके मध्यदेश कृश होते हैं, उसी प्रकार जिस भिक्षु के घुटने, कोहनी आदि स्थूल और जंघा, ऊरु (साथल), बाहु आदि कृश हो गए हों, उसे कालीपर्वसकाशांग (कालीपव्वंगसंकासे) कहा जाता है । २ धमणि - संत - जिसका शरीर केवल धमनियों (क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० ५२ (ग) प्रवचनसारोद्धार, द्वार ८ (क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० ५३ (ग) उत्तराध्ययन, पृ० १७ शिराओं (नसों) से व्याप्त ( जालमात्र ) रह जाए (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ८४ (घ) तत्त्वार्थ० सर्वार्थसिद्धि अ०९/९/४२०/६ (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ८४ (घ) The Sacred Books of the East - Vol XLV, P. 10.
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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