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________________ उत्तराध्ययनसूत्र पुट्टो नो विहन्नेजा का भावार्थ यह है कि परीषहों के द्वारा आक्रान्त होने पर साधक पूर्वोक्त उपायों को आजमाए तो विविध प्रकार से संयम तथा शरीरोपघातपूर्वक विनाश को प्राप्त नहीं होता। भिक्खायरियाए परिव्वयंतो–यहाँ शंका होती है कि परीषहों के नामों को देखते हुए २२ ही परीषह विभिन्न परिस्थितियों में उत्पन्न होते हैं, फिर केवल भिक्षाचर्या के लिए पर्यटन के समय ही इनकी उत्पत्ति का उल्लेख क्यों किया गया? इसका समाधान बृहवृत्ति में यों किया गया है कि भिक्षाटन के समय ही अधिकांश परीषह उत्पन्न होते हैं, जैसा कि कहा है—'भिक्खायरियाए बावीसं परीसहा उदीरिज्जंति।' प्रत्येक परीषह का स्वरूप प्रसंगवश शास्त्रकार स्वयं ही बताएँगे।२ ३-इमे खलु ते बावीसं परीसहा समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया, जे भिक्खू सोच्चा, नच्चा, जिच्चा, अभिभूय, भिक्खायरियाए परिव्वयन्तो पुट्ठो नो विहन्नेजा, तं जहा १ दिगिंछा-परीसहे २ पिवासा-परीसहे ३ सीय-परीसहे ४ उसिण-परीसहे ५ दंस-मसयपरीसहे ६ अचेल-परीसहे ७ अरइ-परीसहे ८ इत्थी-परीसहे ९ चरिया-परीसहे १० निसीहिया-परीसहे ११ सेजा-परीसहे १२ अक्कोस-परीसहे १३ वह-परीसहे १४ जायणा-परीसहे १५ अलाभ-परीसहे १६ रोग-परीसहे १७ तण-फास-परीसहे १८ जल्ल-परीसहे १९ सक्कार-पुरक्कार-परीसहे २० पन्नापरीसहे २१ अन्नाण-परीसहे २२ दंसण-परीसहे। [३-उ.] वे बाईस परीषह ये हैं, जो काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रवेदित हैं; जिन्हें सुन कर, जानकर, अभ्यास के द्वारा परिचित कर, पराजित कर, भिक्षाचर्या के लिए पर्यटन करता हुआ भिक्षु उनसे स्पृष्ट-आक्रान्त होने पर विचलित नहीं होता। यथा-१-क्षुधापरीषह, २-पिपासापरीषह. ३शीतपरीषह, ४- उष्णपरीषह,५-दंश-मशक-परीषह,६-अचेल-परीषह,७-अरति-परीषह, ८-स्त्री-परीषह ९-चर्या-परीषह, १०- निषद्या-परीषह, ११- शय्या-परीषह, १२-आक्रोश-परीषह, १३-वध-परीषह, १४-याचना-परीषह, १५-अलाभ-परीषह, १६-रोग-परीषह, १७-तृणस्पर्श-परीषह, १८-जल्ल-परीषह, १९- सत्कार-पुरस्कार-परीषह, २०-प्रज्ञा-परीषह, २१-अज्ञान-परीषह और २२-दर्शन-परीषह। भगवत्-प्ररूपित परीषह-विभाग-कथन की प्रतिज्ञा १. परीसहाणं पविभत्ती कासवेणं पवेइया। ___ तंभे उदाहरिस्सामि आणुपुट्विं सुणेह मे॥ [१] 'काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर ने परीषहों के जो विभाग (पृथक्-पृथक् स्वरूप और भाव की अपेक्षा से)बताए हैं, उन्हें मैं तुम्हें कहूँगा; मुझ से तुम अनुक्रम से सुनो।' विवेचन-पविभत्ति-प्रकर्षरूप से स्वरूप, विभाग एवं भावों की अपेक्षा से पृथक् ता का नाम प्रविभक्ति है। इसे वर्तमान भाषा में विभाग या भेद कहते हैं। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ८२ २-३. वही, पत्र ८३
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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