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उत्तराध्ययनसूत्र
आवि वा जइ वा रहस्से—आवि–जनसमक्ष प्रकट में, रहस्से—विविक्त उपाश्रयादि में, एकान्त में या अकेले में।
किच्चाण-कृत्यानां-कृति-वन्दना के योग्य, आचार्यादि के।२ पल्हत्थियं-पालथी-घुटनों और जांघों पर वस्त्र लपेटने की क्रिया। पक्खपिंडं—दोनों भुजाओं से जांघों को वेष्टित करके बैठना पक्षपिण्ड कहलाता है।
जओ जत्तं पडिस्सुणे-दो अर्थ—(१) जहाँ गुरु विराजमान हों, वहाँ जा कर उनकी उपदिष्ट वाणी को-प्रेरणा को स्वीकार करे। (२) अथवा यत्नवान् होकर गुरु के आदेश को स्वीकार करे।
उवचिढे—दो अर्थ - (१) पास में जाकर बैठे या खड़ा रहे, (२) मैं सिर झुकाकर वन्दन करता हूँ, इत्यादि कहता हुआ सविनय गुरु के पास जाए।६।।
___पंजलिउडो-पंजलीगडे—दो रूप—(१) प्रकर्ष भावों से दोनों हाथ जोड़कर, (२) प्रकर्षरूप से अन्त:करण की प्रीतिपूर्वक अंजलि करके। विनीत शिष्य को सूत्र-अर्थ-तदुभव बताने का विधान
२३. एवं विणय-जत्तस्स सत्तं अत्थं च तदभयं।
पुच्छमाणस्स सीसस्स वागरेज जहासुयं॥ ____ (२३) विनययुक्त शिष्य के द्वारा इस प्रकार (विनीतभाव से) पूछने पर (गुरु) सूत्र, अर्थ और तदुभय (दोनों) का यथाश्रुत (जैसे सुना या जाना हो, वैसे) प्रतिपादन करे।
विवेचन—सुत्तं अत्थं च तदुभयं-सूत्र–कालिक-उत्कालिक शास्त्र, अर्थ— उनका अर्थ और तदुभय—दोनों उनका आशय, तात्पर्य आदि भी।
जहासुयं— गुरु आदि से जैसा सुना-जाना है, न कि अपनी कल्पना से जाना हुआ।
श्रुतविनयप्रतिपत्ति—आचार्यादि के लिए शास्त्रों में चतुर्विध प्रतिपत्ति बताई गई है—(१) उद्यत १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५४ २. 'कृति:-वन्दनकं, तदर्हन्ति कृत्या:....आचार्यादयः।-बृहद्वृत्ति, पत्र ५४ ३. 'पर्यस्तिकां-जानुजंघोपरिवस्त्रवेष्टनाऽऽत्मिकाम्।'–बृहद्वृत्ति, पत्र ५४ ४. (क) पंक्खपिंडो-दोहिं वि बाहाहिं उरूग-जाणूणि घेत्तूण अच्छणं।'-उत्त० चूर्णि, प० ३५ (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ५४ ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५ ६. (क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० ३५ (ख) बृहद् वृत्ति, पत्र ५५ (ग) सुखबोधा, पत्र ८ ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५
पंजलिउडेत्ति—'प्रकृष्टं भावाऽन्विततयांऽजलिपुटमस्येति प्रांजलिपुटः।' पंजलीगडे-प्रकर्षेण अन्त:प्रीत्यात्मकेन कृतो—विहितोंऽजलि: उभयकरमीलनात्मकोऽनेनेति प्रकृताञ्जलिः। कृतशब्दस्य
परनिपातः प्राकृतत्वात्। ८-९ बृहद्वृत्ति, पत्र ५५