SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्ययन : विनयसूत्र १३ [१८.] कृत्यों (वन्दनीय आचार्यादि) के बराबर (सट कर) न बैठे, आगे और पीछे भी ( सट कर या विमुख हो कर न बैठे, उनके (अतिनिकट) जांघ से जांघ सटा कर, (शरीर से स्पर्श हो, ऐसे ) भी न बैठे। बिछौने (शयन) पर (बैठा-बैठा) ही (उनके कथित आदेश को) श्रवण, स्वीकार न करे (किन्तु आसन छोड़ कर पास आकर स्वीकार करे ) । १९. नेव पल्हत्थियं कुज्जा, पक्खपिण्डं व संजए । पाए पसारिए वावि, न चिट्ठे गुरुणन्ति ॥ [१९.] संयमी मुनि गुरुजनों के समीप पालथी लगा कर न बैठे, पक्षपिण्ड करके अथवा दोनों पैरों ( टांगों) को पसार कर न बैठे। २०. आयरिएहिं वाहिन्तो, तुसिणीओ न कयाइ वि । पसाय - पेही नियागट्ठी, उवचिट्ठे गुरुं सया ॥ [२०] गुरु के प्रसाद (-कृपाभाव) को चाहने वाला मोक्षार्थी शिष्य, आचार्यों के द्वारा बुलाए जाने पर कदापि (किसी भी स्थिति में ) मौन न रहे, किन्तु निरन्तर गुरु के समीप ( सेवा में) उपस्थित रहे। २१. आलवन्ते लवन्ते वा न निसीएज्ज कयाइ वि । चइऊणमासणं धीरो, जओ जत्तं पडिस्सुणे ॥ [२१.] गुरु के द्वारा एक बार अथवा अनेक बार बुलाए जाने पर धीर (बुद्धिमान) शिष्य कदापि बैठा न रहे, किन्तु आसान छोड़कर (उनके आदेश को ) यत्नपूर्वक (सावधानी से ) स्वीकार करे । २२. आसण- गओ न पुच्छेज्जा, नेव सेज्जा-गओ कया । आगम्मुक्कुडुओ सन्तो, पुच्छेज्जा पंजलीउडो ॥ [२२.] आसन अथवा शय्या पर बैठा-बैठा कोई बात गुरु से न पूछे, किन्तु उनके समीप आ कर, आसन से बैठ कर और हाथ जोड़ कर ( जो भी पूछना हो,) पूछे। विवेचन - आशातना के कारण – (१) आचार्यों के प्रतिकूल आचरण मन-वचन-काय से करने से, (२) उनके समीप सट कर बैठने से, (३) उनके आगे या पीछे सट कर या पीठ देकर बैठने से (४) जांघ से जांघ सटा कर बैठने से, (५) शय्या पर बैठे-बैठे ही उनके आदेश को स्वीकार करने से, (५) पालथी लगा कर बैठने से, (६) दोनों हाथों से शरीर को बांध कर बैठने से, (७) दोनों टांगें पसार कर बैठने से, (८) उनके द्वारा बुलाने पर चुप रहने पर, (९) एक या अनेक बार बुलाये जाने पर भी बैठे रहने से (१०) अपना आसन छोड़कर उनके आदेश को यत्नपूर्वक स्वीकार न करने से, (११) आसन पर बैठे-बैठे ही कोई बात गुरु से पूछने से और प्रश्न पूछते समय गुरु के निकट न आकर उकडू आसन से न बैठ कर तथा हाथ न जोड़ने से । ये और ऐसी ही कई बातें गुरुजनों की आशातना की कारण हैं। अनाशातनाविनय के लिए इन्हें छोड़ना अनिवार्य है। वाया अदुव कम्मुणा — वाणी से प्रतिकूल व्यवहार — तुम क्या जानते हो? तुझे कुछ आता-जाता तो नहीं ! कर्म से प्रतिकूल आचरण - गुरु के पैर लगाना, ठोकर मारना, उनके उपकरणों को फैंक देना या पैर लगाना आदि।२ १. उत्तराध्ययनसूत्र, मूल अ. १, गा. १७ से २२ तक २. बृहद्वृत्ति, पत्र ५४
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy