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प्रथम अध्ययन : विनयसूत्र
उसने कहा- 'गुरुदेव! आपकी कृपा से प्रकाश हो गया।' इससे चण्डरुद्राचार्य के परिणामों की धारा बदली। वे केवलज्ञानी शिष्य की अशतना एवं इतने कठोर प्रताड़न के लिए पश्चातापपूर्वक क्षमायाचना करने लगे। शिष्य पर प्रसन्न हो कर उसकी नम्रता, क्षमा, समता और सहिष्णुता की प्रशंसा करने लगे।
इसी प्रकार जो शिष्य विनीत हो कर गुरु के वचनों को सहन करता है, वह अतिक्रोधी गुरु को भी चण्डरुद्र की तरह प्रसन्न कर लेता है। विनीत का वाणीविवेक (वचनविनय)
१४. नापुट्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं वए।
कोहं असच्चं कुब्वेजा, धारेज्जा पियमप्पियं॥ [१४.] (विनीत शिष्य) (गुरु के) विना पूछे कुछ भी न बोले; पूछने पर असत्य न बोले। (कदाचित्) क्रोध (आ भी जाए तो उस) को निष्फल (असत्य-अभावयुक्त) कर दे। (गुरु के) प्रिय और अप्रिय (वचन या शिक्षण) दोनों को धारण करे, (उस पर राग और द्वेष न करे)।
विवेचन-कोहं असच्चं कुव्वेजा-गुरु के द्वारा किसी अपराध या दोष पर अत्यन्त फटकारे जाने पर भी क्रोध न करे । कदाचित् क्रोध उत्पन्न भी हो जाए तो उसे कुविकल्पों से बचा कर विफल कर दे। यह इस पंक्ति का आशय है।
कुलपुत्र का दृष्टान्त-एक कुलपुत्र के भाई को शत्रु ने मार डाला। उसकी माता ने जोश में आकर कहा-पुत्र! भ्रातृघातक को मार कर बदला लो। वह उसे खोजने लगा। बहुत समय भटकने के बाद अपने भाई के हत्यारे को जीवित पकड़ लाया और माता के समक्ष उपस्थित किया। शत्रु उसकी माता की शरण में आ गया। कुलपुत्र ने पूछा—'हे भ्रातृघातक! तुझे कैसे मारूं?' शत्रु ने गिड़गिड़ाकर कहा—'जैसे शरणागत को मारते हैं।' इस पर उसकी मां ने कहा—'पुत्र ! शरणागत को नहीं मारा जाता।' कुलपुत्र बोला—'फिर मैं अपने क्रोध को कैसे सफल करूं?' माता ने कहा—'बेटा! क्रोध सर्वत्र सफल नहीं किया जाता । इस क्रोध को विफल करने में तुम्हारी विशेषता है।' उसने शत्रु को छोड़ दिया। आत्मदमन और परदमन का अन्तर एवं फल
१५. अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो।
अप्पा दन्तो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य॥ [१५.] अपनी आत्मा का ही दमन करना चाहिए; क्योंकि आत्मा का दमन ही कठिन है। दमित आत्मा ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है।
१६. वरं मे अप्पा दन्तो, संजमेण तवेण य।
माहं परेहि दम्मन्तो, बन्धणेहि वहेहि य॥
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ४९ २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४९