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[Essential Sutras]
The five transgressions of the *Maithuna* (sexual intercourse) vow within the *Achar* (conduct) are to be known and not to be committed. These are as follows: -
* Engaging in conversation with a woman who is already married to another man, or with an unmarried woman,
* Engaging in sexual play with another person,
* Attempting to marry another person's wife,
* Having a strong desire for sexual pleasure,
* Engaging in sexual intercourse with a woman who is not one's wife.
I condemn these transgressions. May all my sins be nullified.
**Meaning:** The fourth *Anuvrata* (minor vow) involves abstaining from gross sexual intercourse. I will be content with my own wife for life and renounce all other forms of sexual activity. I will not engage in sexual activity with deities, nor will I encourage others to do so. I will not engage in sexual activity with humans or animals. If I have engaged in conversation with a woman who is already married to another man, or with an unmarried woman, if I have attempted to engage in sexual play with another person, if I have attempted to marry another person's wife, or if I have had a strong desire for sexual pleasure, then I condemn these transgressions. May all my sins be nullified.
## 5. Transgressions of the *Parigraha* (Possession) vow
The fifth *Anuvrata* - Abstaining from excessive possessions. I will limit my possessions to the following:
* Land and buildings,
* Gold and silver,
* Wealth and grain,
* Two-legged and four-legged animals,
* Metals and their products.
I will not increase my possessions beyond the limits I have set for myself. I will not increase my possessions in any way, through my mind, speech, or body.
The five transgressions of the *Parigraha* (possession) vow within the *Achar* (conduct) are to be known and not to be committed. These are as follows: -
* Exceeding the limit of land and buildings,
* Exceeding the limit of gold and silver,
* Exceeding the limit of wealth and grain,
* Exceeding the limit of two-legged and four-legged animals,
* Exceeding the limit of metals and their products.
I condemn these transgressions. May all my sins be nullified.
## 6. Transgressions of the *Digvrata* (Direction) vow
The sixth *Digvrata* - I will limit my movement to the following directions:
* East,
* South,
* West.
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[ आवश्यकसूत्र
रूप मैथुनवेरमणव्रत के पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा ते आलोउं – इत्तरिय परिग्गहियागमणे, अपरिग्गहियागमणे, अनंगक्रीड़ा, परविवाहकरणे कामभोगतिव्वाभिलासे, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
भावार्थ – चौथे अणुव्रत में स्थूल मैथुन से विरमण किया जाता है। मैं जीवनपर्यन्त अपनी विवाहिता स्त्री में ही संतोष रख कर शेष सब प्रकार के मैथुन-सेवन का त्याग करता हूँ अर्थात् देव-देवी सम्बन्धी मैथुन का सेवन मन, वचन, काया से न करूंगा और न कराऊंगा। मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी मैथुनसेवन काया से न करूंगा। यदि मैंने इत्वरिका परिगृहीता अथवा अपरिगृहीता से गमन करने के लिये आलाप-संलापादि किया हो, प्रकृति के विरुद्ध अंगों से कामक्रीड़ा करने की चेष्टा की हो, दूसरे के विवाह करने का उद्यम किया हो, कामभोग की तीव्र अभिलाषा की हो तो मैं इन दुष्कृत्यों की आलोचना करता हूँ। वे मेरे सब पाप निष्फल हों। ५. परिग्रहपरिमाणव्रत के अतिचार
पांचवां अणुव्रत - थूलाओ परिग्गहाओ वेरमणं, खेत्तवत्थु का यथापरिमाण, हिरण्ण-सुवण्ण का यथापरिमाण, धन-धान्य का यथापरिमाण, दुपय-चउप्पय का यथापरिमाण, कुविय धातु का यथापरिमाण, जो परिमाण किया है उसके उपरान्त अपना करके परिग्रह रखने का पच्चक्खाण, जावजीवाए एगविहं तिविहेणं न करेमि मणसा, वयसा, कायसा एवं पांचवां स्थूल परिग्रहपरिमाण व्रत के पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा ते आलोउं-खेत्तवत्थुप्पमाणाइक्कमे, हिरण्णसुवण्णप्पमाणाइक्कमे, धणधण्णप्पमाणाइक्कमे , दुपयचउप्पयप्पमाणाइक्कमे, कुवियप्पमाणाइक्कमे तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
. भावार्थ – खेत-खुली जगह, वास्तु-महल-मकान आदि, सोना-चांदी, दास-दासी, गाय, हाथी, घोड़ा, चौपाये आदि, धन-धान्य तथा सोना-चांदी के सिवाय कांसा, पीतल, तांबा, लोहा आदि धातु तथा इनसे बने हुये बर्तन आदि और शैय्या, आसन, वस्त्र आदि घर संबंधी वस्तुओं का मैंने जो परिमाण किया है, इसके उपरान्त सम्पूर्ण परिग्रह का मन, वचन, काया से जीवनपर्यन्त त्याग करता हूँ। यदि मैंने खेत, वास्तु-महलमकान के परिमाण का उल्लंघन किया हो, सोना, चांदी के परिमाण का उल्लंघन किया हो, धन, धान्य के परिमाण का उल्लंघन किया हो, दास, दासी आदि द्विपद और हाथी, घोड़ा आदि चतुष्पद की संख्या के परिमाण का उल्लंघन किया हो, (इनके अतिरिक्त) दूसरे द्रव्यों की मर्यादा का उल्लंघन किया हो तो मैं उसकी आलोचना करता हूँ और चाहता हूँ कि मेरे वे सब पाप निष्फल हों। ६. दिग्व्रत के अतिचार
छठा दिशिव्रत-उडढदिसि का यथापरिमाण, अहोदिसि का यथापरिमाण,तिरियादिसि का