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________________ ४४२] [व्यवहारसूत्र (३) आज्ञाव्यवहारी-किसी आगमव्यवहारी या श्रुतव्यवहारी की आज्ञा प्राप्त होने पर उस आज्ञा के आधार से प्रायश्चित्त देने वाला 'आज्ञाव्यवहारी' कहा जाता है। (४) धारणाव्यवहारी-बहुश्रुतों ने श्रुतानुसारी प्रायश्चित्त की कुछ मर्यादा किसी योग्य भिक्षु को धारण करा दी हो, उनको अच्छी तरह धारण करने वाला 'धारणाव्यवहारी' कहा जाता है। __ (५) जीतव्यवहारी-जिन विषयों में कोई स्पष्ट सूत्र का आधार न हो उस विषय में बहुश्रुत भिक्षु सूत्र से अविरुद्ध और संयमपोषक प्रायश्चित्त की मर्यादाएं किसी योग्य भिक्षु को धारण करा दे। उन्हें अच्छी तरह धारण करने वाला 'जीतव्यवहारी' कहा जाता है। जंजीयमसोहिकर, पासत्थ पमत्त संजयाइण्णं। जइ वि महाजणाइण्णं, न तेण जीएण ववहारो॥७२०॥ जं जीयं सोहिकरं, संवेगपरायणेन दंतेण। एगेण वि आइन्नं, तेण उ जीएण ववहारो ॥ ७२१॥ -व्यव. भाष्य. उद्दे. १० वैराग्यवान् एक भी दमितेन्द्रिय बहुश्रुत द्वारा जो सेवित हो, वह जीतव्यवहार संयम-शुद्धि करने वाला हो सकता है। किन्तु जो पार्श्वस्थ प्रमत्त एवं अपवादप्राप्त भिक्षु से आचीर्ण हो, वह जीतव्यवहार अनेकों के द्वारा सेवित होने पर भी शुद्धि नही कर सकता है, अतः उस से व्यवहार नहीं करना चाहिए। सो जहकालादीणं अपडिकंतस्स निव्विगईयंतु। मुहणंतगफिडिय, पाणग असंवरेण, एवमादीसु ॥७०९॥ -व्यव. भाष्य. उद्दे. १० जो पच्चक्खाणकाल या स्वाध्यायकाल आदि का प्रतिक्रमण नहीं करता है। मुख पर मुखवस्त्रिका के बिना रहता है अथवा बोलता है और पानी को नहीं ढकता है, उसे नीवी का प्रायश्चित्त आता है, यह सब जीतव्यवहार है। गाथा में आए 'मुहणंतगकफिडिय' की टीका-'मुखपोतिकाया स्फिटितायां, मुखपोतिकामंतरेणेत्यर्थं'। इन पांच व्यवहारियों द्वारा किया गया प्रायश्चित्त आगमव्यवहार यावत् जीतव्यवहार कहा जाता है। इस सूत्रविधान का आशय यह है कि पहले कहा गया व्यवहार और व्यवहारी प्रमुख होता है। उसकी अनुपस्थिति में भी बाद में कहे गए व्यवहार और व्यवहारी को प्रमुखता दी जा सकती है। अर्थात् जिस विषय में श्रुतव्यवहार उपलब्ध हो उस विषय के निर्णय करने में धारणा या जीतव्यवहार को प्रमुख नहीं करना चाहिए। व्युत्क्रम से प्रमुखता देने में स्वार्थभाव या राग-द्वेष आदि होते हैं, निष्पक्षभाव नहीं रहता है। इसी आशय को सूचित करने के लिए सूत्र के अंतिम अंश में राग-द्वेष एवं पक्षपातभाव से रहित होकर
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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