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________________ दसवां उद्देशक] [४४३ यथाक्रम व्यवहार करने की प्रेरणा दी गई है, साथ ही सूत्रनिर्दिष्ट क्रम से एवं निष्पक्षभाव से व्यवहार करने वालों को आराधक कहा गया है। अतः पक्षभाव से एवं व्युत्क्रम से व्यवहार करने वाला विराधक होता है, यह स्पष्ट है। .. व्यवहार शब्द का उपलक्षण से विस्तृत अर्थ करने पर भी फलित होता है कि संयमीजीवन से सम्बन्धित किसी भी व्यवहारिक विषय का निर्णय करना हो या कोई भी आगम से प्ररूपित तत्त्व के सम्बन्ध में उत्पन्न विवाद की स्थिति का निर्णय करना हो तो इसी क्रम से करना चाहिए अर्थात् यदि आगमव्यवहारी हो तो उसके निर्णय को स्वीकार करके विवाद को समाप्त करना चाहिए। यदि आगमव्यवहारी न हो तो उपलब्ध श्रुत-आगम के आधार से जो निर्णय हो, उसे स्वीकार करना चाहिए। सूत्र का प्रमाण उपलब्ध होने पर आज्ञा, धारणा या परम्परा को प्रमुख नहीं मानना चाहिए, क्योंकि आज्ञा, धारणा या परम्परा की अपेक्षा श्रुतव्यवहार प्रमुख है। वर्तमान में सर्वोपरि प्रमुख स्थान आगमों का है, उसके बाद व्याख्याओं एवं ग्रन्थों का स्थान है तत्पश्चात् स्थविरों द्वारा धारित कंठस्थ धारणा या परम्परा का है। व्याख्याओं या ग्रन्थों में भी पूर्व-पूर्व के आचार्यों की रचना का प्रमुख स्थान है। अतः वर्तमान में सर्वप्रथम निर्णायक शास्त्र हैं, उससे विपरीत अर्थ को कहने वाले व्याख्या और ग्रन्थ का महत्त्व नहीं है। उसी प्रकार शास्त्रप्रमाण के उपलब्ध होने पर धारणा या परम्परा का भी कोई महत्त्व नहीं है। इसलिए शास्त्र, ग्रन्थ, धारणा और परम्परा को भी यथाक्रम विवेकपूर्वक प्रमुखता देकर किसी भी तत्त्व का निर्णय करना आराधना का हेतु है और किसी भी पक्षभाव के कारण व्युत्क्रम से निर्णय करना विराधना का हेतु है। अतः इस सूत्र के आशय को समझ कर निष्पक्षभाव से आगम तत्त्वों का निर्णय करना चाहिए। भगवतीसूत्र श. ८ उ. ८ में तथा ठाणांग अ. ५ उ. २ में भी यह सूत्र है। वहां भी इस विषयक कुछ विवेचन किया गया है। सारांश यह है कि प्रायश्चित्तों का या अन्य तत्त्वों का निर्णय इन पांच व्यवहारों द्वारा क्रमपूर्वक करना चाहिए, व्युत्क्रम से नहीं। इसलिए किसी विषय में आगमपाठ के होते हुए धारणा या परंपरा को प्रमुखता देकर आग्रह करना सर्वथा अनुचित समझना चाहिए। विविधप्रकार से गण की वैयावृत्य करने वाले ४. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-१. अट्ठकरे नाम एगे, नो माणकरे, २. माणकरे नाम एगे, नो अट्ठकरे, ३. एगे अट्ठकरे वि, माणकरे वि, ४. एगेनो अट्ठकरे, नो माणकरे। ५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-१. गणट्ठकरे नाम एगे, नो माणकरे, २. माणकरे नाम एगे, नो गणट्ठकरे, ३. एगे गणट्ठकरे वि, माणकरे वि, ४. एगे नो गणट्ठकरे, नो माणकरे। ६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-१. गणसंगहकरे नामं एगे, नो माणकरे, २. माणकरे नाम एगे, नो गणसंगहकरे, ३. एगे गणसंगहकरे वि, माणकरे वि, ४. एगे नो गणसंगहकरे, नो माणकरे।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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