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________________ दसवां उद्देशक ] ५. जीत । [ ४४१ ३. व्यवहार पांच प्रकार का कहा गया है, यथा - १. आगम, २. श्रुत, ३. आज्ञा, ४. धारणा, १. जहां आगम ज्ञानी (केवलज्ञानधारक यावत् नौपूर्वधारक) हों, वहां उनके निर्देशानुसार व्यवहार करें। २. जहां आगमज्ञानी न हों तो वहां श्रुतज्ञानी ( जघन्य आचारप्रकल्प, उत्कृष्ट नवपूर्व से कुछ कम ज्ञानी) के निर्देशानुसार व्यवहार करें। ३. जहां श्रुतज्ञानी न हों, तो वहां गीतार्थ की आज्ञानुसार व्यवहार करें। ४. जहां गीतार्थ की आज्ञा न हो वहां स्थविरों की धारणानुसार व्यवहार करें। ५. जहां स्थविरों की धारणा ज्ञात न हो तो वहां सर्वानुमत परम्परानुसार व्यवहार करें। इन पांच व्यवहारों के अनुसार व्यवहार करें। यथा - १. आगम, २. श्रुत, ३. आज्ञा, ४. धारणा, ५. जीत । आगमज्ञानी, श्रुतज्ञानी, गीतार्थ - आज्ञा, स्थविरों की धारणा और परम्परा, इनमें से जिस समय जो उपलब्ध हो, उस समय उसी से क्रमशः व्यवहार करें। प्र० - भंते! ऐसा क्यों कहा? उ०- श्रमण-निर्ग्रन्थ आगमव्यवहार की प्रमुखता वाले होते हैं। इन पांच प्रकार के व्यवहारों में से जब-जब, जिस-जिस विषय में जो प्रमुख व्यवहार उपलब्ध हो तब तब, उस-उस विषय में मध्यस्थ भाव से उस व्यवहार से व्यवहार करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ जिनाज्ञा का आराधक होता है। विवेचन - सूत्र में 'व्यवहार' शब्द प्रायश्चित्त अर्थ में प्रयुक्त है। अन्य आगमों में भी इस अर्थ में प्रयोग हुआ है। यथा—'अहालहुसए नामं ववहारे पट्ठवियव्वे सिया' - यथा लघुष्क (अत्यल्प) प्रायश्चित्त की प्रस्थापना करनी चाहिए। - बृहत्कल्प उद्देशक ४ प्रायश्चित्त का निर्णय ' आगम' आदि सूत्रोक्तक्रम से ही करना चाहिए। विशेष दोषों की आलोचना आगमव्यवहारी के पास ही करनी चाहिए। यदि वे न हों तो जो उपलब्ध सूत्रों में से अधिकतम सूत्रों को धारण करने वाले हों एवं आलोचना - श्रवण के योग्य हों उनके पास आलोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए। ऐसा न करने पर अर्थात् व्युत्क्रम से करने पर भाष्य में प्रायश्चित्त का कथन किया गया है। सूत्र में प्रायश्चित्त के निर्णायक आधार पांच व्यवहार कहे गये हैं। उन्हें धारण करने वाला व्यवहारी कहा जाता है। (१) आगमव्यवहारी - ९ पूर्व से लेकर १४ पूर्व के ज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी, ये 'आगमव्यवहारी' कहे जाते हैं । (२) श्रुतव्यवहारी - जघन्य आचारांग एवं निशीथसूत्र मूल, अर्थ, परमार्थ सहित कण्ठस्थ धारण करने वाले और उत्कृष्ट ९ पूर्व से कम श्रुत को धारण करने वाले ' श्रुतव्यवहारी' कहे जाते हैं ।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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