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सातवां उद्देशक ]
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तथापि कभी कोई गीतार्थ साधु किसी भी साधु या साध्वी को दीक्षित कर सकता है । उसी प्रकार कोई भी गीतार्थ साध्वी किसी भी साधु या साध्वी को दीक्षित कर सकती है। किन्तु उन्हें आचार्य की आज्ञा लेना आवश्यक होता है।
किसी भी साधु को दीक्षित करना हो तो आचार्य, उपाध्याय के लिए दीक्षित किया जा सकता है और साध्वी को दीक्षित करना हो तो आचार्य, उपाध्याय या प्रवर्तिनी के लिए दीक्षित किया जा सकता है। किंतु साधु अपने लिए साध्वी को और साध्वी अपने लिये साधु को दीक्षित नहीं कर सकती।
भाष्य में बताया गया है कि इस प्रकार से परस्पर एक-दूसरे के लिए दीक्षित करने पर जनसाधारण में अनेक प्रकार की आशंकाएं उत्पन्न हो सकती हैं, जिससे उस साधु-साध्वी की अथवा जिनशासन की हीलना होती है।
कठिन - शब्दार्थ
'पव्वावेत्तए' 'मुंडावेत्त ' 'सिक्खावेत्तए'
'उवट्ठावेत्तए' 'संभुंजित्तए '
'संवासित्तए'
'इत्तरियं '
'दिसं'
'अणुदिसं' 'उद्दिसित्तए' 'धारित्तए'
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दीक्षित करना । लुंचन करना ।
ग्रहण शिक्षा में दशवैकालिकसूत्र पढ़ाना, आसेवन शिक्षा में आचारविधि, वस्त्र परिधान आदि कार्यों की विधि बताना ।
बड़ी दीक्षा देना ।
आहारादि देना ।
साथ रखना ।
अल्पकालीन ।
आचार्य ।
उपाध्याय और प्रवर्तिनी ।
निश्रा का निर्देश करना ।
नवदीक्षित भिक्षु के द्वारा अपनी दिशा अनुदिशा का धारण करना ।
दूरस्थ क्षेत्र में रहे हुए गुरु आदि के निर्देश का विधि-निषेध
९. नो कप्पइ निग्गंथीणं विइकिट्ठियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा । १०. कप्पइ निग्गंथाणं विइकिट्ठियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा । ९. निर्ग्रन्थियों को दूरस्थ प्रवर्तिनी या गुरुणी का उद्देश करना या धारण करना नहीं कल्पता है । १०. निर्ग्रन्थ को दूरस्थ आचार्य या गुरु आदि का उद्देश करना या धारण करना कल्पता है । विवेचन—पूर्वसूत्र में अन्य के लिए दीक्षित करने का विधान किया गया है और प्रस्तुत सूत्र में भी उसी विषय का कुछ विशेष विधान है।