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[ व्यवहारसूत्र
इस प्रकार निवेदन के पश्चात् सदोष साधु या साध्वी अपने दोषों का पश्चात्ताप करके सरलता एवं लघुता धारण कर ले तो उसे प्रायश्चित्त देकर उसके साथ संबंध कायम रखा जा सकता है। पश्चात्ताप न करने पर संबंधविच्छेद कर दिया जाता है।
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ठाणांगसूत्र अ. ३ तथा अ. ९ में संभोगविच्छेद करने के कारण कहे गये हैं और भाष्य में भी ऐसे अनेक कारण कहे हैं।
उनका सारांश यह है कि १. महाव्रत, समिति, गुप्ति एवं समाचारी में उपेक्षापूर्वक चौथी बार दोष लगाने पर, २. पार्श्वस्थादि के साथ बारम्बार संसर्ग करने पर तथा ३. गुरु आदि के प्रति विरोधभाव रखने पर उस साधु-साध्वी के साथ संबंधविच्छेद कर दिया जाता है। 1
प्रव्रजित करने आदि के विधि-निषेध
५. नो कप्पइ निग्गंथाणं निग्गंथीं अप्पणो अट्ठाए पव्वावेत्तए वा, मुंडावेत्तए वा, सेहावेत्तए वा, उवट्टावेत्तए वा, संवसित्तए वा, संभुंजित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा, अणुदिसं वा उद्दित्तिए वा धारेत्तए वा ।
६. कप्पइ निग्गंथाणं निग्गंथिं अन्नेसिं अट्ठाए पव्वावेत्तए वा जाव संभुंजित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा, अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा ।
७. नो कप्पड़ निग्गंथीणं निग्गंथं अप्पणो अट्ठाए पव्वावेत्तए वा जाव संभुंजित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा ।
८. कप्पइ निग्गंथीणं निग्गंथं अण्णेसिं अट्ठाए पव्वावेत्तए वा जाव संभुंजित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा ।
५. निर्ग्रन्थी को अपनी शिष्या बनाने के लिए प्रव्रजित करना, मुंडित करना, शिक्षित करना, चारित्र में पुनः उपस्थापित करना, उसके साथ रहना और साथ बैठकर भोजन करने के लिए निर्देश करना निर्ग्रन्थ को नहीं कल्पता है तथा अल्पकाल के लिए उसके दिशा या अनुदिशा का निर्देश करना एवं उसे धारण करना नहीं कल्पता है ।
६. अन्य की शिष्या बनाने के लिए किसी निर्ग्रन्थी को प्रव्रजित करना यावत् साथ बैठकर भोजन करने के लिए निर्देश करना निर्ग्रन्थ को कल्पता है तथा अल्पकाल के लिए उसकी दिशा या अनुदिशा का निर्देश करना एवं उसे धारण करना कल्पता है।
७. निर्ग्रन्थ को अपना शिष्य बनाने के लिए प्रव्रजित करना यावत् साथ बैठकर भोजन करने के लिए निर्देश करना निर्ग्रन्थी को नहीं कल्पता है तथा अल्पकाल के लिए उसकी दिशा या अनुदिशा का निर्देश करना एवं उसे धारण करना नहीं कल्पता है।
८. निर्ग्रन्थ को अन्य का शिष्य बनाने के लिए प्रव्रजित करना, साथ बैठकर भोजन करने के लिए निर्देश करना निर्ग्रन्थी को कल्पता है तथा अल्पकाल के लिए उसकी दिशा या अनुदिशा का निर्देश करना एवं उसे धारण करने के लिये अनुज्ञा देना कल्पता है ।
विवेचन - सामान्यतया साधु की दीक्षा आचार्य, उपाध्याय के द्वारा एवं साध्वी की दीक्षा आचार्य, उपाध्याय या प्रवर्तिनी के द्वारा दी जाती है।