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________________ [ व्यवहारसूत्र किसी भी साध्वी को कहीं पर भी दीक्षित होना हो तो उस क्षेत्र से अत्यन्त दूर रही हुई प्रवर्तिनी का निर्देश करके किसी के पास दीक्षित होना नहीं कल्पता है, क्योंकि वह स्वयं अकेली जा नहीं सकती। अधिक दूर होने से कोई पहुँचा नहीं सकते। लम्बे समय के अन्तर्गत उसका भाव परिणमन हो जाय, वह बीमार हो जाय, उनकी गुरुणी बीमार हो जाय या काल कर जाय इत्यादि स्थितियों में अनेक संकल्पविकल्प या क्लेश, अशांति उत्पन्न होने की संभावना रहती है, इत्यादि कारणों से अतिदूरस्थ गुरुणी आदि का निर्देश कर किसी के पास दीक्षित होना साध्वी के लिए निषेध किया गया है। ३९२] सामान्य भिक्षु को भी दूरस्थ आचार्य आदि की निश्रा का निर्देश कर किसी के पास दीक्ष होना नहीं कल्पता है, ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि साध्वी के लिए कहे गये दोषों की संभावना साधु के लिए भी हो सकती है। फिर भी द्वितीय सूत्र में जो छूट दी गई है, उसका आशय भाष्य में यह बताया गया है कि यदि दीक्षित होने वाला भिक्षु पूर्ण स्वस्थ एवं ज्ञानी, संविग्न और स्वयं धर्मोपदेशक है तथा उसका आचार्य भी ऐसा ही संविग्न है तो दूरस्थ क्षेत्र में किसी के पास दीक्षित हो सकता है। ऐसे भिक्षु के लिए भाष्य में कहा है कि मिच्छत्तादि दोसा, जे वृत्ता ते उ गच्छतो तस्स । गागिस्सवि न भवे, इति दूरगते वि उद्दिसणा ॥ - भा. गा. १४२ उस योग्य गुणसंपन्न भिक्षु के अकेले जाने पर भी पूर्वोक्त मिथ्यात्वादि दोषों की संभावना नहीं रहती है, अत: उसे दूरस्थ आचार्य, उपाध्याय का निर्देश करके दीक्षा दी जा सकती है। यहां ‘दिसं-अणुदिसं' के अर्थ-भ्रम के कारण इन सूत्रों का विचरण से संबंधित अर्थ किया ता है। उसे भ्रांतिपूर्ण अर्थ समझना चाहिए। कलह-उपशमन के विधि-निषेध ११. नो कप्पड़ निग्गंथाणं विइकट्ठाई पाहुडाई विओसवेत्तए । १२. कप्पइ निग्गंथीणं विइकट्ठाई पाहुडाई विओसवेत्तए । ११. निर्ग्रन्थों में यदि परस्पर कलह हो जाए तो उन्हें दूर क्षेत्र में रहे हुए ही उपशान्त होना या क्षमायाचना करना नहीं कल्पता है। • १२. निर्ग्रन्थियों में यदि परस्पर कलह हो जाए तो उन्हें दूरवर्ती क्षेत्र में रहते हुए भी उपशांत होना या क्षमायाचना करना कल्पता है। विवेचन - साधु-साध्वी को कलह होने के बाद क्षमायाचना किये बिना विहार आदि करने का निषेध बृहत्कल्प उ. ४ में किया गया है। तथापि कभी दोनों में से एक की अनुपशांति के कारण कोई विहार करके दूर देश में चला जाय और बाद में उस अनुपशांत साधु-साध्वी के मन मे स्वतः या किसी की
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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