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________________ संग्रहपरिज्ञासम्पदा के वर्षाकाल में सभी मुनियों के निवास के लिए योग्यस्थान की परीक्षा करना, सभी श्रमणों के लिए प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक की व्यवस्था करना, नियमित समय पर प्रत्येक कार्य करना, अपने ज्येष्ठ का सत्कार-सम्मान करना-ये भेद हैं। गणिसम्पदाओं के वर्णन के पश्चात् तत्सम्बन्धी चतुर्विध विनय-प्रतिपत्ति पर चिंतन करते हुए तविनय. विक्षेपणाविनय और दोषनिर्घातविनय बताये हैं। यह चतर्विध विनयप्रतिपत्ति है जो गुरुसम्बन्धी विनयप्रतिपत्ति कहलाती है। इसी प्रकार शिष्य सम्बन्धी विनय प्रतिपत्ति भी उपकरणोत्पादनता, सहायता, वर्णसंज्वलनता (गुणानुवादिता), भारप्रत्यवरोहणता है। इन प्रत्येक के पुनः चार-चार प्रकार हैं। इस प्रकार प्रस्तुत उद्देशक में कुल ३२ प्रकार की विनय-प्रतिपत्ति का विश्लेषण है। पांचवें उद्देशक में दश प्रकार की चित्तसमाधि का वर्णन है। धर्मभावना, स्वप्नदर्शन, जातिस्मरणज्ञान, देवदर्शन, अवधिज्ञान, अवधिदर्शन, मन:पर्यवज्ञान, केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलमरण (निर्वाण) इन दश स्थानों के वर्णन के साथ मोहनीयकर्म की विशिष्टता पर प्रकाश डाला है। छठे उद्देशक में ग्यारह प्रकार की उपासक प्रतिमाओं का वर्णन है। प्रतिमाओं के वर्णन के पूर्व मिथ्यादृष्टि के स्वभाव का चित्रण करते हुए बताया है कि वह न्याय का या अन्याय का किंचिंन्मात्र भी बिना ख्याल किये दंड प्रदान करता है। जैसे सम्पत्तिहरण, मुंडन, तर्जन, ताड़न, अंदुकबन्धन (सांकल से बांधना), निगडबन्धन, काष्ठबन्धन, चारकबन्धन (काराग में डालना), निगडयुगल संकुटन (अंगों को मोडकर बांधना), हस्त, पाद, कर्ण, नासिका, ओष्ठ, शीर्ष, मुख, वेद आदि का छेदन करना, हृदय-उत्पाटन, नयनादि उत्पाटन, उल्लंबन (वृक्षादि पर लटकाना), घर्षण, घोलन, शलायन (शली पर लटकाना), शलाभेदन, क्षारवर्तन (जख्मों आदि पर नमकादि छिड़कना), दर्भवर्तन (घासादि से पीड़ा पहुँचाना), सिंहपुंछन, वृषभपुंछन, दावाग्निदग्धन, भक्तपाननिरोध प्रभृति दंड देकर आनन्द का अनुभव करता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि आस्तिक होता है व उपासक बन एकादश प्रतिमाओं की साधना करता है। इन ग्यारह उपासक प्रतिमाओं का वर्णन उपासकदशांग में भी आ चुका है। प्रतिमाधारक श्रावक प्रतिमा की पूर्ति के पश्चात् संयम ग्रहण कर लेता है ऐसा कुछ आचार्यों का अभिमत है। कार्तिक सेठ ने १०० बार प्रतिमा ग्रहण की थी ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है। सातवें उद्देशक में श्रमण की प्रतिमाओं का वर्णन है। ये भिक्षुप्रतिमाएं १२ हैं। प्रथम प्रतिमाधारी भिक्षु को एक दत्ति अन्न की और एक दत्ति पानी की लेना कल्पता है। श्रमण के पात्र में दाता द्वारा दिये जाने वाले अन्न और जल की धारा जब तक अखण्ड बनी रहती है, उसे दत्ति कहते हैं। जहाँ एक व्यक्ति के लिए भोजन बना हो वहाँ से लेना कल्पता है। जहाँ दो, तीन या अधिक व्यक्तियों के लिए बना हो वहाँ से नहीं ले सकता। इसका समय एक मास का है। दूसरी प्रतिमा भी एक मास की है। उसमें दो दत्ति आहार की और दो दत्ति पानी की ली जाती हैं। इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी और सातवीं प्रतिमाओं में क्रमशः तीन, चार, पांच, छह और सात दत्ति अन्न की और उतनी ही दत्ति पानी की ग्रहण की जाती हैं। प्रत्येक प्रतिमा का समय एक-एक माह है। केवल दत्तियों की वृद्धि के कारण ही त्रिमासिक से सातमासिक क्रमश: कहलाती हैं। आठवीं प्रतिमा सात दिन-रात की होती है। इसमें एकान्त चौविहार उपवास करना होता है। गाँव के बाहर आकाश की ओर मुंह करके सीधा देखना, एक करवट से लेटना और विषध्यासन (पैरों को बराबर करके) बैठना, उपसर्ग आने पर शान्तचित्त से सहन करना होता है। ४५
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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