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________________ हैं। 'शबलं कर्बुरं चित्रम्' शबल का अर्थ चित्रवर्णा है। हस्तमैथुन, स्त्री-स्पर्श आदि, रात्रि में भोजन लेना और करना, आधाकर्मी, औद्देशिक आहार का लेना, प्रत्याख्यानभंग, मायास्थान का सेवन करना आदि-आदि ये शबल दोष हैं। उत्तरगुणों में अतिक्रमादि चार दोषों का एवं मूलगुणों में अनाचार के अतिरिक्त तीन दोषों का सेवन करने से चारित्र शबल होता है। तीसरे उद्देशक में ३३ प्रकार की आशातनाओं का वर्णन है। जैनाचार्यों ने आशातना शब्द की निरुक्ति अत्यन्त सुन्दर की है। सम्यग्दर्शनादि आध्यात्मिक गुणों की प्राप्ति को आय कहते हैं और शातना का अर्थ खण्डन है। सद्गुरुदेव आदि महान् पुरुषों का अपमान करने से सम्यग्दर्शनादि सद्गुणों की आशातनाखण्डना होती है। शिष्य का गुरु के आगे, समश्रेणी में, अत्यन्त समीप में गमन करना, खड़ा होना, बैठना आदि, गुरु, से पूर्व किसी से सम्भाषण करना, गुरु के वचनों की जानकर अवहेलना करना, भिक्षा से लौटने पर आलोचना न करना, आदि-आदि आशातना के तेतीस प्रकार हैं। चतुर्थ उद्देशक में ८ प्रकार की गणिसम्पदाओं का वर्णन है। श्रमणों के समुदाय को गण कहते हैं। गण का अधिपति गणी होता है। गणिसम्पदा के आठ प्रकार हैं-आचारसम्पदा, श्रुतसम्पदा, शरीरसम्पदा, वचनसम्पदा, वाचनासम्पदा, मतिसम्पदा, प्रयोगमतिसम्पदा और संग्रहपरिज्ञानसम्पदा।। आचारसम्पदा के संयम में ध्रुवयोगमुक्त होना, अहंकाररहित होना, अनियतवृत्ति होना, वृद्धस्वभावी (अचंचलस्वभावी)-ये चार प्रकार हैं। श्रुतसम्पदा के बहुश्रुतता, परिचितश्रुतता, विचित्रश्रुतता, घोषविशुद्धिकारकता-ये चार प्रकार हैं। शरीरसम्पदा के शरीर की लम्बाई च चौड़ाई का सम्यक् अनुपात, अलज्जास्पद शरीर, स्थिर संगठन, प्रतिपूर्ण इन्द्रियता-ये चार भेद हैं। वचनसम्पदा के आदेयवचन-ग्रहण करने योग्य वाणी, मधुर वचन, अनिश्रित-प्रतिबन्धरहित, असंदिग्ध वचन-ये चार प्रकार हैं। वाचनासम्पदा के विचारपूर्वक वाच्यविषय का उद्देश्य निर्देश करना, विचारपूर्वक वाचन करना, उपयुक्त विषय का ही विवेचन करना, अर्थ का सुनिश्चित रूप में निरूपण करना-ये चार भेद हैं। मतिसम्पदा के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारण-ये चार प्रकार हैं। अवग्रह मतिसम्पदा के क्षिप्रग्रहण, बहुग्रहण, बहुविधग्रहण, ध्रुवग्रहण, अनिश्रितग्रहण और असंदिग्धग्रहण-ये छह भेद हैं। इसी प्रकार ईहा और अवाय के भी छह-छह प्रकार हैं। धारणा मतिसम्पदा के बहुधारण, बहुविधधारण, पुरातनधारण, दुर्द्धरधारण, अनिश्रितधारण और असंदिग्धधारण-ये छह प्रकार हैं। प्रयोगमतिसम्पदा के स्वयं की शक्ति के अनुसार वाद-विवाद करना, परिषद् को देखकर वादविवाद करना, क्षेत्र को देखकर वाद-विवाद करना, काल को देखकर वाद-विवाद करना-ये चार प्रकार हैं। -अभयदेवकृत समवायांगटीका १. शबलं-कर्बुरं चारित्रं यैः क्रियाविशेषैर्भवति ते शबलास्तद्योगात्साधवो पि। २. आयः-सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणस्तस्य शातना-खण्डना निरुक्तादाशातना। -आचार्य अभयदेवकृत समवायांगटीका ४४
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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