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________________ इनके अतिरिक्त आगमेतर साहित्य में विशेषतः कर्मसाहित्य का बहुत-सा भाग पूर्वोद्धृत माना जाता है। निर्वृहित कृतियों के सम्बन्ध में यह स्पष्टीकरण करना आवश्यक है कि उसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर हैं, सूत्र के रचयिता गणधर हैं और जो संक्षेप में उसका वर्तमान रूप उपलब्ध है उसके कर्ता वही हैं जिन पर जिनका नाम अंकित या प्रसिद्ध है। जैसे दशवैकालिक के शय्यंभव; कल्प, व्यवहार, निशीथ और दशाश्रुतस्कंध के रचयिता भद्रबाहु हैं। जैन अंग-साहित्य की संख्या के सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर सभी एकमत हैं। सभी अंगों को बारह स्वीकार करते हैं। परन्तु अंगबाह्य आगमों की संख्या के सम्बन्ध में यह बात नहीं है, उनके विभिन्न मत हैं। यही कारण है कि आगमों की संख्या कितने ही ८४ मानते हैं, कोई-कोई ४५ मानते हैं और कितने ही ३२ मानते हैं। नन्दीसूत्र में आगमों की जो सूची दी गई है, वे सभी आगम वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज मूल आगमों के साथ कुछ नियुक्तियों को मिलाकर ४५ आगम मानता है और कोई ८४ मानते हैं। स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा बत्तीस को ही प्रमाणभूत मानती है। दिगम्बर समाज की मान्यता है कि सभी आगम विच्छिन्न हो गये हैं। दशाश्रुतस्कन्ध दशाश्रुतस्कंध छेदसूत्र है। छेदसूत्र के दो कार्य हैं-दोषों से बचाना और प्रमादवश लगे हुए दोषों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान करना। इसमें दोषों से बचने का विधान है। ठाणांग में इसका अपरनाम आचारदशा प्राप्त होता है। दशाश्रुतस्कंध में दश अध्ययन हैं, इसलिए इसका नाम दशाश्रुतस्कंध है। दशाश्रुतस्कंध का १८३० अनुष्टुप श्लोक प्रमाण उपलब्ध पाठ है। २१६ गद्यसूत्र हैं। ५२ पद्यसूत्र हैं। प्रथम उद्देशक में २० असमाधिस्थानों का वर्णन है। जिस सत्कार्य के करने से चित्त में शांति हो, आत्मा ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप मोक्षमार्ग में रहे, वह समाधि है और जिस कार्य में चित्त में अप्रशस्त एवं अशांत भाव हों, ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि मोक्षमार्ग से आत्मा भ्रष्ट हो, वह असमाधि है। असमाधि के बीस प्रकार हैं। जैसे-जल्दी-जल्दी चलना, बिना पूंजे रात्रि में चलना, बिना उपयोग सब दैहिक कार्य करना, गुरुजनों का अपमान, निन्दा आदि करना। इन कार्यों के आचरण से स्वयं व अन्य जीवों को असमाधिभाव उत्पन्न होता है। साधक की आत्मा दूषित होती है। उसका पवित्र चारित्र मलिन होता है। अतः उसे असमाधिस्थान कहा है। द्वितीय उद्देशक में २१ शबल दोषों का वर्णन किया गया है, जिन कार्यों के करने से चारित्र की निर्मलता नष्ट हो जाती है। चारित्र मलक्लिन्न होने से वह कर्बुर हो जाता है। इसलिए उन्हें शबलदोष कहते १. (क) तत्त्वार्थसूत्र १-२० श्रुतसागरीय वृत्ति। (ख) षट्खण्डागम (धवला टीका) खण्ड १, पृ. ६ बारह अंगविज्झा। २. समाधानं समाधिः-चेतसः स्वास्थ्यं, मोक्षमार्गेऽवस्थितिरित्यर्थः न समाधिरसमाधिस्तस्य स्थानानि-आश्रया भेदाः पर्याया असमाधि-स्थानानि। -आचार्य हरिभद्र ४३
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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