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________________ दशवैकालिक चतुर्दशपूर्वी शय्यंभव के द्वारा विभिन्न पूर्वो से नि!हण किया गया है। जैसे–चतुर्थ अध्ययन आत्मप्रवाद पूर्व से, पंचम अध्ययन कर्मप्रवाद पूर्व से, सप्तम अध्ययन सत्यप्रवाद पूर्व से और शेष अध्ययन प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु से उद्धृत किये गये हैं। द्वितीय अभिमतानुसार दशवैकालिक गणिपिटक द्वादशांगी से उद्धृत है। निशीथ का निर्वृहण प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व से हुआ है। प्रत्याख्यान पूर्व के बीस वस्तु अर्थात् अर्थाधिकार हैं। तृतीय वस्तु का नाम आचार है। उसके भी बीस प्राभृतच्छेद अर्थात् उपविभाग हैं। बीसवें प्राभृतच्छेद से निशीथ का नि!हण किया गया है। पंचकल्पचूर्णि के अनुसार निशीथ के निर्वृहक भद्रबाहुस्वामी हैं। इस मत का समर्थन आगमप्रभावक मुनिश्री पुण्यविजयजी ने भी किया है। दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार, ये तीनों आगम चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहुस्वामी के द्वारा प्रत्याख्यान पूर्व से निर्मूढ हैं।६।। दशाश्रुतस्कन्ध की नियुक्ति के मन्तव्यानुसार वर्तमान में उपलब्ध दशाश्रुतस्कंध अंगप्रविष्ट आगमों में जो दशाएं प्राप्त हैं, उनसे लघु हैं। इनका निप॑हण शिष्यों के अनुग्रहार्थ स्थविरों ने किया था। चूर्णि के अनुसार स्थविर का नाम भद्रबाहु है। उत्तराध्ययन का दूसरा अध्ययन भी अंग-प्रभव माना जाता है। नियुक्तिकार भद्रबाहु के मतानुसार वह कर्मप्रवादपूर्व के सत्रहवें प्राभृत से उद्धृत है। १. आयप्पवाय पुव्वा निज्जूढा होइ धम्मपन्नती। कम्पप्पवाय पुव्वा पिंडस्स उ एसणा तिविधा॥ सच्चप्पवाय पुव्वा निज्जूढा होइ वक्कसुद्धी उ। अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उ तइयवत्थूओ॥ -दशवैकालिकनियुक्ति गा०१६-१७ २. बीओऽवि अ आएसो, गणिपिडगाओ दुवालसंगाओ। एअंकिर णिज्जूढं मणगस्स अणुग्गहट्ठाए॥ -दशवैकालिकनियुक्ति गा. १८ ३. णिसीहं णवमा पुव्वा पच्चक्खाणस्स ततियवत्थूओ। आयार नामधेज्जा, वीसतिमा पाहुडच्छेदा॥ -निशीथभाष्य ६५०० ४. तेण भगवता आयारपकप्प-दसा-कप्प-ववहारा य नवमपुव्वनीसंदभूता निज्जूढा। -पंचकल्पचूर्णि, पत्र १ (लिखित) ५. बृहत्कल्पसूत्र, भाग ६, प्रस्तावना पृ. ३ ६. वंदामि भद्दबाहुं, पाईणं चरिय सयलसुयणाणिं। सो सुत्तस्स कारगमिसं(णं) दसासु कप्पे य ववहारे। -दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति गा. १, पत्र १ ७. डहरीओ उ इमाओ, अज्झयणेसु महईओ अंगेसु। छसु नायादीएसुं, वत्थविभूसावसाणमिव ॥ डहरीओउइमाओ, निज्जूढाओअणुग्गहट्टाए। थरेहिं तु दसाओ, जो दसा जाणओ जीवो॥ -दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति ५-६ ८. दशाश्रुतस्कंधचूर्णि। कम्पप्पवायपुव्वे सत्तरसे पाहुडंमि जं सुत्तं । सणयं सोदाहरणं तं चेव इहंपि णायव्वं॥ -उत्तराध्ययननियुक्ति गा. ६९
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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