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________________ समाचारीशतक में समयसुन्दरगणी ने छेदसूत्रों की संख्या छह बतलाई है:(१) महानिशीथ, (२) दशाश्रुतस्कंध, (३) व्यवहार, (४) बृहत्कल्प, (५) निशीथ, (६) जीतकल्प। जीतकल्प को छोड़कर शेष पांच सूत्रों के नाम नन्दीसूत्र में भी आये हैं। जीतकल्प जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण की कृति है, एतदर्थ उसे आगम की कोटि में स्थान नहीं दिया जा सकता। महानिशीथ का जो वर्तमान संस्करण है, वह आचार्य हरिभद्र (वि. ८वीं शताब्दी) के द्वारा पुनरुद्धार किया हुआ है। उसका मूल संस्करण तो उसके पूर्व ही दीमकों ने उदरस्थ कर लिया था। अतः वर्तमान में उपलब्ध महानिशीथ भी आगम की कोटि में नहीं आता। इस प्रकार मौलिक छेदसूत्र चार ही हैं-(१) दशाश्रुतस्कन्ध, (२) व्यवहार, (३) बृहत्कल्प और (४) निशीथ। निर्वृहित आगम __ जैन आगमों की रचनाएं दो प्रकार से हुई हैं-(१) कृत, (२) निर्वृहित। जिन आगमों का निर्माण स्वतंत्र रूप से हुआ है वे आगम कृत कहलाते हैं। जैसे गणधरों के द्वारा द्वादशांगी की रचना की गई है और भिन्न-भिन्न स्थविरों के द्वारा उपांग साहित्य का निर्माण किया गया है, वे सब कृत आगम हैं। निर्वृहित आगम ये माने गये हैं३ (१) आचारचूला (२) दशवैकालिक (३) निशीथ (४) दशाश्रुतस्कन्ध (५) बृहत्कल्प (६) व्यवहार (७) उत्तराध्ययन का परीषह अध्ययन। आचारचूला–यह चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु के द्वारा निर्गृहण की गई है, यह बात आज अन्वेषणा के द्वारा स्पष्ट हो चुकी है। आचारांग से आचारचला की रचना-शैली सर्वथा पृथक है। उसकी रचना आचारांग के बाद हुई है। आचारांग-नियुक्तिकार ने उसको स्थविरकृत माना है। स्थविर का अर्थ चूर्णिकार ने गणधर किया है और वृत्तिकार ने चतुर्दशपूर्वी किया है किन्तु उनमें स्थविर का नाम नहीं आया है। विज्ञों का अभिमत है कि यहाँ पर स्थविर शब्द का प्रयोग चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु के लिए ही हुआ है। आचारांग के गम्भीर अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिए 'आचारचूला' का निर्माण हुआ है। नियुक्तिकार ने पांचों चूलाओं के नि!हणस्थलों का संकेत किया है। १. समाचारीशतक, आगम-स्थापनाधिकार। २. कालियं अणेगविहं पण्णत्तं, तं जहा-दसाओ, कप्पो, ववहारो, निसीह, महानिसीहं। -नन्दीसूत्र ७७ ३. आगमयुग का जैनदर्शन, पृ० २१-२२, पं० दलसुखभाई मालवणिया -प्रकाशक सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा ४. थरेहिऽणुग्गहट्ठा, सीसहि होउ पागउत्थं च। आयाराओ अत्थो, आयारंगेसु पविभत्तो॥ -आचारांगनियुक्ति गा० २८७ ५. थेरे गणधरा। -आचारांगचूर्णि, पृ० ३२६ ६. 'स्थविरैः' श्रुतवृद्धश्चतुर्दशपूर्वविद्भिः । ७. बिइअस्स य पंचमए, अट्ठमगस्स बिइयंमि उद्देसे। भणिओ पिडो सिज्जा, वत्थं पाउग्गहो चेव॥ पंचमगस्स चउत्थे इरिया, वणिज्जई समासेणं। छट्ठस्स य पंचमए, भासज्जायं वियाणाहि॥ सत्तिक्कगाणि सत्तवि, निजूढाई महापरिन्नाओ। सत्थपरित्रा भावण, निज्जूढाओ धुयविमुत्ती॥ आयारपकप्पो पुण, पच्चक्खाणस्स तइयवत्थूओ। आयारनामधिज्जा, वीसइमा पाहुडच्छेया॥ -आचारांगनियुक्ति गा० २८८-२९१ ४१
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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