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________________ ३६०] नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए । कप्पड़ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए । [ व्यवहारसूत्र तंसि च णं कारणंसि निट्ठियंसि परो वएज्जा - 'वसाहि अज्जे ! एगरायं वा दुरायं वा, ' एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए। नो से कप्पड़ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए । जा तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ सा सन्तरा छेए वा परिहारे वा । १२. वासावासं पज्जोसविया णिग्गंथी य जं पुरओ काउं विहरइ, सा य आहच्च वसुंभेज्जा, अत्थि य इत्थ काइ अण्णा उपसंपज्जणारिहा सा उवसंपज्जियव्वा । for a इत्थ काइ अण्णा उवसंपज्जणारिहा तीसे य अप्पणो कप्पड़ असमत्ते एवं से कप्प एगराइयाए पडिमाए जण्णं-जण्णं दिसं अण्णाओ साहम्मिणीओ विहरंति तण्णं - तण्णं दिसं उवलित्तए । नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए । कप्पड़ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए । तंसि च णं कारणंसि निट्ठियंसि परो वएज्जा - 'वसाहि अज्जे ! एगरायं वा दुरायं वा', एवं से कप्पड़ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए । नो से कप्पड़ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए । जा तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ सा संतरा छेए वा परिहारे वा । ११. ग्रामानुग्राम विहार करती हुईं साध्वियां, जिसको अग्रणी मानकर विहार कर रही हों उनके कालधर्म प्राप्त होने पर शेष साध्वियों में जो साध्वी योग्य हो उसे अग्रणी बनाना चाहिए। यदि अन्य कोई साध्वी अग्रणी होने योग्य न हो और स्वयं ने भी निशीथ आदि का अध्ययन पूर्णन किया हो तो उसे मार्ग में एक-एक रात्रि ठहरते हुए जिस दिशा में अन्य साधर्मिणी साध्वियां विचरती हों, उस दिशा में जाना चाहिए। मार्ग में उसे विचरने के लक्ष्य से ठहरना नहीं कल्पता है। यदि रोगादि का कारण हो तो ठहरना कल्पता है। - रोगादि के समाप्त होने पर यदि कोई कहे कि - ' हे आर्ये! एक या दो रात और ठहरो', तो उन्हें एक या दो रात और ठहरना कल्पता है। किन्तु एक या दो रात से अधिक ठहरना नहीं कल्पता है । जो साध्वी एक या दो रात से अधिक ठहरती है, वह मर्यादा उल्लंघन के कारण दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त की पात्र होती है। १२. वर्षावास में रही हुई साध्वियां जिसको अग्रणी मानकर रह रही हों उसके कालधर्म प्राप्त होने पर शेष साध्वियों में जो साध्वी योग्य हो, उसे अग्रणी बनाना चाहिये । यदि अन्य कोई साध्वी अग्रणी होने योग्य न हो और स्वयं ने भी आचार-प्रकल्प का अध्ययन पूर्ण न किया हो तो उसे मार्ग में एक-एक रात्रि ठहरते हुए जिस दिशा में अन्य साधर्मिणी साध्वियां विचरती हों उस दिशा में जाना कल्पता है। मार्ग में उसे विचरने के लक्ष्य से ठहरना नहीं कल्पता है ।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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