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________________ ३५२] [ व्यवहारसूत्र इस प्रकार प्रार्थना करे कि - 'हे भदन्त ! मितावग्रह में विचरने के लिए, कल्प अनुसार करने के लिए, ध्रुव नियमों के लिये अर्थात् दैनिक क्रियायें करने के लिए आज्ञा दें तथा पुनः आने की अनुज्ञा दीजिए।' इस प्रकार कहकर वह उनके चरण का स्पर्श करे । २२. चर्या से निवृत्त कोई भिक्षु यदि चार-पांच रात की अवधि में स्थविरों को देखे (मिले) तो उसे वही आलोचना वही प्रतिक्रमण और कल्प पर्यन्त रहने के लिये वही अवग्रह की पूर्वानुज्ञा रहती है । २३. चर्या से निवृत्त भिक्षु यदि चार-पांच रात के बाद स्थविरों से मिले तो वह पुनः आलोचना-प्रतिक्रमण करे और आवश्यक दीक्षाछेद या तपरूप प्रायश्चित्त में उपस्थित हो । भिक्षुभाव (संयम की सुरक्षा) के लिये उसे दूसरी बार अवग्रह की अनुमति लेनी चाहिए । वह इस प्रकार से प्रार्थना करे कि - 'हे भदन्त ! मुझे मितावग्रह की, यथालन्दकल्प की ध्रुव, नित्य क्रिया करने की और पुनः आने की अनुमति दीजिए।' इस प्रकार कहकर वह उनके चरणों का स्पर्श करे । विवेचन - प्रस्तुत सूत्रचतुष्क में 'चरिका' शब्द के दो अर्थ विवक्षित किए गये हैं— (१) पूर्वसूत्रोक्त व्रजिकागमन (२) विदेश या दूरदेश गमन । यहां इन दोनों प्रकार की चरिका के दो प्रकार कहे गये हैं (१) प्रविष्ट - जितने समय की आज्ञा प्राप्त हुई है, उतने समय के भीतर व्रजिका में रहा हुआ या दूर देश एवं विदेश की यात्रा में रहा हुआ भिक्षु । (२) निवृत्त - व्रजिका - विहार से निवृत्त या दूर देश के विचरण से निवृत्त होकर पुनः आज्ञा लेकर आस-पास में विचरण करने वाला भिक्षु । इन सूत्रों में प्रविष्ट एवं निवृत्त चरिका वाले आज्ञाप्राप्त भिक्षु को विनय-व्यवहार का विधान किया गया है। जिसमें ४-५ दिन की मर्यादा की गई है। इन मर्यादित दिनों के पूर्व गुरु आचार्य आदि का पुनः मिलने का अवसर प्राप्त हो जाय तो पूर्व की आज्ञा से ही विचरण किया जा सकता है किंतु इन मर्यादित दिनों के बाद अर्थात् १०-२० दिन में या कुछ महीनों से मिलने का अवसर प्राप्त हो तो पुनः सूत्रोक्त विधि से आज्ञा प्राप्त कर लेनी चाहिए । चार-पांच दिन का कथन एक व्यावहारिक सीमा है, यथा- स्थापनाकुल और राजा के कोठार, दुग्धशाला आदि स्थानों की जानकारी किए बिना गोचरी जाने पर निशीथ. उ. ४ तथा उ. ९ में प्रायश्चित्त विधान है। वहां पर भी ४-५ रात्रि की छूट दी गई है। इस उद्देशक के सूत्र १५ में उपस्थापना लिए भी ४ - ५ रात्रि की छूट दी गई है। अतः प्रस्तुत प्रकरण से भी ४-५ दिन के बाद गुरु आदि से मिलने पर पुनः विधियुक्त आज्ञा लेना आवश्यक समझना चाहिये ।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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