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________________ चौथा उद्देशक ] शैक्ष और रत्नाधिक का व्यवहार २४. दो साहम्मिया एगयओ विहरंति, तं जहा- सेहे य, राइणिए य । तत्थ सेहत ए पलिच्छन्ने, राइणिए अपलिच्छन्ने, सेहतराएणं राइणिए उवसंपज्जियव्वे, भिक्खोववायं च दलयइ कप्पागं । [ ३५३ २५. दो साहम्मिया एगयओ विहरंति, तं जहा - सेहे य, राइणिए य । तत्थ राइणिए पलिच्छन्ने सेहतए अपलिच्छन्ने । इच्छा राइणिए सेहतरागं उपसंपज्जेज्जा, इच्छा नो उवसंपज्जेज्जा, इच्छा भिक्खोववायं दलेज्जा कप्पागं, इच्छा नो दलेज्जा कप्पागं । २४. दो साधर्मिक भिक्षु एक साथ विचरते हों, यथा- अल्प दीक्षापर्याय वाला और अधिक दीक्षापर्याय वाला। उनमें यदि अल्प दीक्षापर्याय वाला श्रुतसम्पन्न तथा शिष्यसम्पन्न हो और अधिक दीक्षापर्याय वाला श्रुतसम्पन्न तथा शिष्यसम्पन्न न हो तो भी अल्प दीक्षापर्याय वाले को अधिक दीक्षापर्याय वाले की विनय वैयावृत्य करना, आहार लाकर देना, समीप में रहना और अलग विचरने के लिए शिष्य देना इत्यादि कर्तव्यों का पालन करना चाहिये । २५. दो साधर्मिक भिक्षु एक साथ विचरते हों, यथा-अल्प दीक्षापर्याय वाला और अधिक दीक्षापर्याय वाला। उनमें यदि अधिक दीक्षापर्याय वाला श्रुतसम्पन्न तथा शिष्यसम्पन्न हो और अल्प दीक्षापर्याय वाला श्रुतसम्पन्न तथा शिष्यसम्पन्न न हो तो अधिक दीक्षापर्याय वाला इच्छा हो तो अल्प दीक्षापर्याय वाले की वैयावृत्य करे, इच्छा न हो तो न करे। इच्छा हो तो आहार लाकर दे, इच्छा न हो तो न दे। इच्छा हो तो समीप में रखे, इच्छा न हो तो न रखे। इच्छा हो तो अलग विचरने के लिये शिष्य दे, इच्छा न हो तो न दे। विवेचन- इन सूत्रों में रत्नाधिक और शैक्ष साधर्मिक भिक्षुओं के ऐच्छिक एवं आवश्यक कर्तव्यों का कथन किया गया है। यहां रत्नाधिक की अपेक्षा अल्प दीक्षापर्याय वाले भिक्षु को शैक्ष कहा गया है, अतः इस अपेक्षा से अनेक वर्षों की दीक्षापर्याय वाला भी शैक्ष कहा जा सकता है। (१) रत्नाधिक भिक्षु शिष्य आदि से सम्पन्न हो और शैक्ष भिक्षु शिष्य आदि से सम्पन्न न हो तो उसे विचरण करने के लिये शिष्य देना या उसके लिये आहार आदि मंगवा देना और अन्य भी सेवाकार्य करवा देना रत्नाधिक के लिये ऐच्छिक कहा गया है अर्थात् उन्हें उचित लगे या उनकी इच्छा हो वैसा कर सकते हैं । (२) शैक्ष भिक्षु यदि शिष्य आदि से सम्पन्न हो एवं रत्नाधिक भिक्षु शिष्यादि से सम्पन्न न हो और वह विचरण करना चाहे या कोई सेवा कराना चाहे तो शिष्यादिसम्पन्न शैक्ष का कर्तव्य हो जाता है कि वह रत्नाधिक को बहुमान देकर उनकी आज्ञानुसार प्रवृत्ति करे ।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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