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________________ ३५०] [व्यवहारसूत्र संतोष न हो कि इनसे तो अधिक ज्ञानी संत अपने गच्छ में भी हैं, फिर अपना गच्छ छोड़ कर इनके गच्छ में क्यों आया है ? अतः सही जानकारी के लिए पुनः प्रश्न करे कि–'हे भगवन् ! आपका कल्पाक कौन है?' अर्थात् किस प्रमुख की आज्ञा में आप विचरण एवं अध्ययन आदि कर रहे हो, इस गच्छ में कौन अध्यापन में कुशल है? इसके उत्तर में जो वहां सबसे अधिक बहुश्रुत हो अर्थात् सभी बहुश्रुतों में भी जो प्रधान हो और गच्छ का प्रमुख हो, उनके नाम का कथन करे और कहे कि 'उनकी निश्रा में गच्छ के सभी साधु रहते हैं एवं अध्ययन करते हैं और मैं भी उनकी आज्ञानुसार विचरण एवं अध्ययन कर रहा हूँ।' अभिनिचारिका में जाने के विधि-निषेध १९. बहवे साहम्मिया इच्छेज्जा एगयओ अभिनिचारियं चारए नो णं कप्पइ थेरे अणापुच्छित्ता एगयओ अभिनिचारियं चारए, कप्पइ णं थेरे आपुच्छित्ता एगयओ अभिनिचारियं चारए। थेरा य से वियरेज्जा-एवं णं कप्पड़ एगयओ अभिनिचारियं चारए। थेरा य से नो वियरेज्जा-एवं नो कप्पइ एगयओ अभिनिचारियं चारए। जे तत्थ थेरेहिं अविइण्णे एगयओ अभिनिचारियं चरंति, से सन्तरा छेए वा परिहारे वा। १९. अनेक साधर्मिक साधु एक साथ अभिनिचारिका' करना चाहें तो स्थविर साधुओं को पूछे बिना उन्हें एक साथ अभिनिचारिका' करना नहीं कल्पता है, किन्तु स्थविर साधुओं से पूछ लेने पर उन्हें एक साथ अभिनिचारिका' करना कल्पता है। यदि स्थविर साधु आज्ञा दें तो उन्हें 'अभिनिचारिका' करना कल्पता है। यदि स्थविर साधु आज्ञा न दें तो उन्हें 'अभिनिचारिका' करना नहीं कल्पता है। यदि स्थविरों से आज्ञा प्राप्त किये बिना 'अभिनिचारिका' करे तो वे दीक्षाछेद या परिहारप्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। विवेचन-आचार्य-उपाध्याय जहां मासकल्प ठहरे हों, शिष्यों को सूत्रार्थ की वाचना देते हों वहां से ग्लान असमर्थ एवं तप से कृश शरीर वाले साधु निकट ही किसी गोपालक बस्ती में दुग्धादि विकृति सेवन के लिए जाएं तो उनकी चर्या को यहां 'अभिनिचारिका गमन' कहा गया है। किसी भी भिक्षु को या अनेक भिक्षुओं को ऐसे दुग्धादि की सुलभता वाले क्षेत्र में जाना हो तो गच्छ-प्रमुख आचार्य या स्थविर आदि की आज्ञा लेना आवश्यक होता है। वे आवश्यक लगने पर ही उन्हें अभिनिचारिका में जाने की आज्ञा देते हैं अन्यथा मना कर सकते हैं। नि. उ. ४ में आचार्य-उपाध्याय की विशिष्ट आज्ञा बिना विकृति सेवन करने का प्रायश्चित्त कहा गया है और यहां पर आज्ञा बिना 'वजिका' में जाने का प्रायश्चित्त कहा गया है। अतः आज्ञा न मिलने पर नहीं जाना चाहिए।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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