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________________ चौथा उद्देशक] [३४९ ___ चार-पांच दिन की छूट में शुभ दिन या विहार आदि कारण के अतिरिक्त ऋतुधर्म आदि अस्वाध्याय का भी जो कारण निहित है, उसका निवारण ४-५ दिन की छूट में सरलता से हो सकता है। अन्यगण में गये भिक्षु का विवेक १८. भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, तं च केइ साहम्मिए पासित्ता वएज्जा प०-कं अज्जो! उवसंपज्जित्ताणं विहरसि? उ०-जे तत्थ सव्वराइणिए तं वएज्जा। प०-'अह भन्ते! कस्स कप्पाए ?' उ०-जेतत्थ सव्व-बहुस्सुए तं वएज्जा, जंवा से भगवं वक्खइ तस्स आणा-उववायवयण-निदेसे चिट्ठिस्सामि। १८. विशिष्ट ज्ञानप्राप्ति के लिए यदि कोई भिक्षु अपना गण छोड़कर अन्य गण को स्वीकार कर विचर रहा हो तो उस समय उसे यदि कोई स्वधर्मी भिक्षु मिले और पूछे कि प्र०–'हे आर्य! तुम किस की निश्रा में विचर रहे हो?' उ.-तब वह उस गण में जो दीक्षा में सबसे बड़ा हो उसका नाम कहे। प्र०-यदि पुनः पूछे कि-'हे भदन्त ! किस बहुश्रुत की प्रमुखता में रह रहे हो?' उ०-तब उस गण में जो सबसे अधिक बहुश्रुत हो-उसका नाम कहे तथा वे जिनकी आज्ञा में रहने के लिए कहें, उनकी ही आज्ञा एवं उनके समीप में रहकर उनके ही वचनों के निर्देशानुसार मैं रहूँगा ऐसा कहे। विवेचन–प्रत्येक गच्छ में बहुश्रुत आचार्य-उपाध्याय का होना आवश्यक ही होता है। फिर भी उपाध्यायों के क्षयोपशम में और अध्यापन की कुशलता में अंतर होना स्वाभाविक है। किसी गच्छ में बहुश्रुत वृद्ध आचार्य का शिष्य प्रखर बुद्धिमान् एवं श्रुतसंपन्न हो सकता है जो आचार्य की सभी जिम्मेदारियों को निभा रहा हो अथवा किसी बहुश्रुत आचार्य के गुरु या दीक्षित पिता आदि भद्रिक परिणामी अल्पश्रुत हों और वे गच्छ में रत्नाधिक हों तो ऐसे गच्छ में अध्ययन करने के लिये जाने वाले भिक्षु के संबंध में सूत्रकथित विषय समझ लेना चाहिए। ___ कोई अध्ययनशील भिक्षु किसी भी अन्यगच्छीय भिक्षु की अध्यापन-कुशलता की ख्याति मुन कर या जानकर उस गच्छ में अध्ययन करने के लिए गया हो। वहां विचरण करते हुए कभी कोई पूर्व गच्छ का साधर्मिक भिक्षु गोचरी आदि के लिए भ्रमण करते हुए मिल जाए और वह पूछे कि 'हे आर्य! तुम किस की निश्रा (आज्ञा) में विचरण कर रहे हो?' तब उत्तर में वहां जो रत्नाधिक आचार्य, गुरु या बहुश्रुत के दीक्षित पिता आदि हों उनका नाम बतावे। किंतु जब प्रश्नकर्ता को
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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