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[व्यवहारसूत्र इस प्रायश्चित्तविधान से यह स्पष्ट होता है कि किसी को नई दीक्षा या बड़ीदीक्षा देने का अधिकार आचार्य या उपाध्याय को ही होता है एवं उसमें किसी प्रकार की त्रुटि होने पर प्रायश्चित्त भी उन्हें ही आता है।
अन्य साधु, साध्वी या प्रवर्तक, प्रवर्तिनी भी आचार्य-उपाध्याय की आज्ञा से किसी को दीक्षा दे सकते हैं किन्तु उसकी योग्यता के निर्णय की मुख्य जिम्मेदारी आचार्य-उपाध्याय की ही होती है। सामान्य रूप से तो आगमानुसार प्रवृत्ति करने की जिम्मेदारी सभी साधु-साध्वी की होती ही है, फिर भी गच्छ के व्यवस्था सम्बन्धी निर्देश आचार्य-उपाध्याय के अधिकार में होते हैं। अतः तत्सम्बन्धी विपरीत आचरण होने पर प्रायश्चित्त के पात्र भी वे आचार्यादि ही होते हैं।
यहां इन तीन सूत्रों में बड़ीदीक्षा के निमित्त से तीन विकल्प कहे गये हैं-(१) विस्मरण में मर्यादा-उल्लंघन, (२) स्मृति होते हुए मर्यादा-उल्लंघन, (३) विस्मरण या अविस्मरण से विशेष मर्यादा-उल्लंघन।
काल से एवं गुण से कल्पाक बन जाने पर उस भिक्षु को चार या पांच रात्रि के भीतर अर्थात् चार रात्रि और पाँचवें दिन तक बड़ीदीक्षा दी जा सकती है। यह सूत्र में आये 'चउराय पंचरायाओ' शब्द का अर्थ है। इस छूट में विहार, शुभ दिन, मासिक धर्म की अस्वाध्याय, रुग्णता आदि अनेक कारण निहित हैं।
अतः दीक्षा के सात दिन बाद आठवें, नौवें, दसवें, ग्यारहवें या बारहवें दिन तक कभी भी बड़ीदीक्षा दी जा सकती है और उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं आता है। बारहवीं रात्रि का उल्लंघन करने पर सूत्र १५-१६ के अनुसार यथायोग्य तप या दीक्षाछेद रूप प्रायश्चित आता है। जिसका भाष्य में जघन्य प्रायश्चित्त पांच रात्रि का कहा गया है। दीक्षा की सत्तरहवीं रात्रि का उल्लंघन करने पर यथायोग्य तप या छेद प्रायश्चित्त के अतिरिक्त एक वर्ष तक उसे प्रायश्चित्त रूप में आचार्य-उपाध्याय पद से मुक्त कर दिया जाता है।
... यहां बड़ीदीक्षा के विधान एवं प्रायश्चित्त में एक छूट और भी कही गई है, वह यह कि उस नवदीक्षित भिक्षु के माता-पिता आदि कोई भी माननीय या उपकारी पुरुष हों और उनके कल्पाक होने में देर हो तो उनके निमित्त से उसको बड़ीदीक्षा देने में छह मास तक की भी प्रतीक्षा की जा सकती है और उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं आता है।
ठाणांगादि आगमों में सात रात्रि का जघन्य शैक्षकाल कहा गया है। अतः योग्य हो तो भी सात रात्रि पूर्ण होने के पूर्व बड़ीदीक्षा नहीं दी जा सकती है, क्योंकि उस समय तक वह शैक्ष एवं अकल्पाक कहा गया है।
छह मास का 'उत्कृष्ट शैक्षकाल' कहा गया है। अतः माननीय पुरुषों के लिए बड़ीदीक्षा रोकने पर भी छह मास का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।
इन सूत्रों में स्मृति रहते हुए एवं विस्मरण से ४-५ दिन की मर्यादा उल्लंघन का प्रायश्चित्त समान कहा गया है।