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________________ ३४६] [व्यवहारसूत्र संयम त्याग कर जाने वाले आचार्यादि के द्वारा पद देने का निर्देश १४. आयरिय-उवज्झाए ओहायमाणे अन्नयरं वएज्जा-'अजो! ममंसिणं ओहावियंसि समाणंसि अयं समुक्कसियव्वे।' से य समुक्कसणारिहे समुक्कसियव्वे, से य नो समुक्कसणारिहे नो समुक्कसियव्वे। अत्थि य इत्थ अण्णे केइ समुक्कसणारिहे से समुक्कसियव्वे। तं सि च णं समुक्किट्ठसि परो वएजा-'दुस्समुक्किळं ते अजो! निक्खिवाहि।' तस्स णं निक्खिवमाणस्स नत्थि केइ छए वा परिहारे वा।जे साहम्मिया अहाकप्पेणं नो उट्ठाए विहरंति। सव्वेसिंतेसिं तप्पत्तियं छए वा परिहारे वा। १४. संयम का परित्याग करके जाने वाले आचार्य या उपाध्याय किसी प्रमुख साधु से कहें कि 'हे आर्य मेरे चले जाने पर अमुक साधु को मेरे पद पर स्थापित करना।' तो यदि आचार्यनिर्दिष्ट वह साधु उस पद पर स्थापन करने योग्य हो तो उसे स्थापित करना चाहिये। यदि वह उस पद पर स्थापित करने योग्य न हो तो उसे स्थापित नहीं करना चाहिये। यदि संघ में अन्य कोई साधु उस पद के योग्य हो तो उसे स्थापित करना चाहिये। यदि संघ में अन्य कोई भी साधु उस पद के योग्य न हो तो आचार्यनिर्दिष्ट साधु को ही उस पद पर स्थापित करना चाहिये। उसको उस पद पर स्थापित करने के बाद यदि गीतार्थ साधु कहें कि 'हे आर्य! तुम इस पद के अयोग्य हो, अत: इस पद को छोड़ दो' (ऐसा कहने पर)यदि वह उस पद को छोड़ दे तो दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त का पात्र नहीं होता है। जो साधर्मिक साधु कल्प के अनुसार उसे आचार्यादि पद छोड़ने के लिए न कहें तो वे सभी सधार्मिक साधु उक्त कारण से दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। विवेचन-पूर्व सूत्र में रुग्ण या मरणासन्न आचार्य-उपाध्याय ने किसी भिक्षु को आचार्यादि देने का सूचन किया हो तो उनके कथन का विवेकपूर्वक आचरण करना आगमानुसार उचित माना गया है। इस सूत्र में भी वही विधान है। अन्तर यह है कि यहां द्रव्य एवं भाव से संयम का परित्याग करने के इच्छुक आचार्य-उपाध्याय का वर्णन है। __ शरीर अस्वस्थ होने से, वैराग्य की भावना मंद हो जाने से, वेदमोहनीय के प्रबल उदय से या अन्य परीषह उपसर्ग से संयम त्यागने का संकल्प उत्पन्न हो सकता है। उसका निवारण न होने से सामान्य भिक्षु या पदवीधरों के लिए भी ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो सकती है। इस परिस्थिति का एवं उसके विवेक का वर्णन उद्दे. ३ सू. २८ में देखें। अन्य सम्पूर्ण विवेचन पूर्वसूत्र १३ के अनुसार समझ लेना चाहिये। उपस्थापन के विधान १५. आयरिय-उवज्झाए सरमाणे परं चउराय-पंचरायाओ कप्पागं भिक्खुंनो उवट्ठावेइ कप्पाए, अत्थियाइं से केइ माणणिज्जे कप्पाए नत्थि से केइ छए वा परिहारे वा। णत्थियाइं से केइ माणणिज्जे कप्पाए से सन्तरा छेए वा परिहारे वा।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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